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अलंकारचिन्तामणि राज्य में राजा तैलसान्तर जगदेकदानी हुए। भार्या चट्टलदेवी इनके पुत्र श्री वल्लभराज या विक्रमसान्तर त्रिभुवनदानी पुत्री पम्पादेवी थी। पम्पादेवी महापुराणमें विदुषी थी.... पम्पादेवी ने अष्टाविधार्चन महाभिषेक व चतुर्भक्ति रची। यह द्रविलसंघ नन्दिगण अरुंगलान्वय, अजितसेन, पण्डितदेव या वादीभसिंहकी शिष्या श्राविका थी। पम्पादेवीके भाई श्री वल्लभराजने वासुपूज्य सी. देवके चरण धोकर दान किया।''
"नं. १३०, करीब सन् ११४७ ई. इस बस्तिके द्वारपर । श्री अजितसेन भट्टारकका शिष्य बड़ा सरदार पर्मादि था। उसका ज्येष्ठ पुत्र भीमप्य, भार्या देवल थे। उनके दो पुत्र थे—मसन सेट्टि और मारिसेट्टि । मारिसेट्टिने दोरसमुद्र में एक उच्च जैनमन्दिर बनवाया।"
"नं. १ सन् ११६९ ई. ग्राम वन्दियर ( ? ) में जैन बस्तिके पाषाणपर । इस समय होयसल बल्लालदेव दोरसमुद्रमें राज्य कर रहे थे। यहाँ मुनि वंशावली दी है। श्री गौतम भद्रबाहु, भूतबलि, पुष्पदन्त, एकसन्धि, सुमति भ., समन्तभद्र, भट्टाकलंकदेव, वक्रग्रीवाचार्य, वज्रनन्दि भट्टारक, सिंहनन्द्याचार्य, परिवादिमल्ल, श्रीपालदेव, कनकसेन, श्री वादिराज, श्री विजयदेव, श्रीवादिराजदेव, अजितसेन, पण्डितदेव...."
उपर्युक्त अभिलेखोंमें उल्लिखित अजितसेनका समय ई. सन् १०७७ से ई. सन् ११७० तक है। इस प्रकार तिरानबे वर्षोंका काल उनका कार्य-काल आता है। यदि • इस कार्यकालके पूर्व बीस-पचीस वर्षकी आयुके भी रहे हों तो उनका आयुकाल एक
सौ अठारह वर्षके करीब पहुँच जाता है। अभिलेखोंमें स्पष्ट लिखा हुआ है कि विक्रम सान्तरदेवने अजितसेनको मान्यता प्रदान की। इस प्रकार अजितसेनका समय ईसवी सन् की ग्यारहवीं-बारहवीं शती सिद्ध होता है। पर अलंकारचिन्तामणिके रचयिताने जिनसेन, हरिचन्द्र, वाग्भट, अर्हद्दास, और पीयूषवर्ष आदि आचार्योंके श्लोक उद्धृत किये हैं। इन उल्लिखित आचार्योंमें अर्हद्दासका समय विक्रमकी तेरहवीं शतीका अन्तिम चरण है। अतः अजितसेनका समय इसके पश्चात् होना चाहिए। पोम्बुच्चसे प्राप्त पूर्वोक्त अभिलेखोंमें निर्दिष्ट अजितसेनका समय ईसवी सन्की बारहवीं शती है। अतः उक्त अजितसेन अलंकारचिन्तामणिके रचयिता नहीं हो सकते ।
श्रवणबेलगोलके तीन अभिलेखोंमें अजितसेनका उल्लेख आया है। अभिलेख संख्या अड़तीसमें बताया गया है कि गंगराज मारसिंहने कृष्णराज तृतीयके लिए गुर्जर देशको जीता था। उसने कृष्णराजके विपक्षी अल्लका मद चूर किया, विन्ध्य पर्वतकी तलहटीमें रहनेवाले किरातोंके समूहको जीता और मान्यखेटमें कृष्णराजकी सेनाकी रक्षा की। इन्द्रराज चतुर्थका अभिषेक कराया, पाताल मल्लके कनिष्ठ भ्राता वज्जलको पराजित किया, वनवासी नरेशकी धनसम्पत्तिका अपहरण किया, माटूरवंशका मस्तक झुकाया और
१. मद्रास व मैसूर प्रान्तके प्राचीन जैन स्मारक, पृ. सं. ३१६ । २. वही, पृ. सं. २७३ । ३. वही, पृ. सं. २७६ ।
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