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अलंकारचिन्तामणिः
[ ५।१६५विश्वत्राणसमर्थजेतृनिधिपप्रस्थानभेरिध्वनि श्रत्वा घोरमहाशनोयितममी प्रथिनः पार्थिवाः । संत्रासज्वरपूर्णकर्णबधिराः शोघ्रं गताश्चक्रभृत्तेजोदुन्दुभिनादवाडवमहानिर्घोषमप्यम्बुधिम् ।।१६५।। हास्यशान्ताद्भुता ईषत्सुकुमारा निरूपिताः । यत्रेषत्सुकुमारेण संदर्भण हि भारती ॥१६६।। त्वं शुद्धात्मा शरीरं सकलमलयुतं त्वं सदानन्दमूतिदेहो दुःखैकगेहं त्वमसि सकलविकायमज्ञानपुञ्जम् । त्वं नित्यश्रीनिवासः क्षणचिसदृशाशाश्वतैकाङ्गमङ्ग मा गा जोवान रागं वपुषि भज निजानन्दसौख्योदयं त्वम् ॥१६७।। मध्याभारभरी मध्यकौशिकी' द्वे इमे पुन: । वृत्ती रसेषु सर्वेषु स्यातां साधारणे मते ॥१६८।।
उदाहरण
भयंकर महावज्रको ध्वनिका अनुकरण करनेवाले, संसार रक्षणमें समर्थों को भी जोतनेवाले चक्रवर्ती भरतके आक्रमणके समयकी रणभेरोकी ध्वनिको सुनकर भयके कारण उत्पन्न हुए ज्वरसे पीड़ित होनेके कारण शत्रुराजा बहरे हो गये और चक्रवर्ती भरतके तेजरूपी दुन्दुभिनादसे बड़वानलकी ध्वनि व्याप्त हुई जिससे शत्रुराजा समुद्र में चले गये। आशय यह है कि जैसे इन्द्र के वज्रके भयसे भयभीत पर्वत समुद्र में जाकर छिप गये उसी प्रकार चक्रवर्तीकी रणभेरीकी ध्वनिको सुनकर शत्रुराजा डरकर समुद्रके किनारे चले गये ॥१६५।। भारती वृत्तिका स्वरूप और उदाहरण
जिस रचना-विशेषमें कुछ सुकुमार सन्दर्भ, हास्य, शान्त और अद्भुत रसमें वर्णित हों उस रचना विशेषकी वृत्ति भारती मानी जाती है ॥१६६॥ यथा
हे जीवात्मन् ! तुम विशुद्ध आत्मस्वरूप हो । सदा आनन्दस्वरूप ही तुम्हारा शरीर है । तुम सब कुछ जाननेवाले हो-ज्ञाता, द्रष्टा हो एवं सर्वदा तुम्हारे पास लक्ष्मीका निवास है । यह शरीर सभी प्रकारको अपवित्र वस्तुओंसे भरा हुआ है, अज्ञानकी राशि है। इसका लावण्य विद्युत्के समान क्षणस्थायी है। अतएव इस शरीरमें प्रीति न करके निजानन्द सुखस्वरूप परमात्माका ही भजन करना चाहिए ॥१६७॥ वृत्तियोंका साधारणत्व
मध्यमा आरभटी और मध्यमा कौशिकी ये दो वृत्तियां सभी रसोंमें रहती है, इसलिए ये दोनों ही साधारण मानी गयी हैं ॥१६८॥
१. कैशिकी-ख।
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