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________________ पञ्चमः परिच्छेदः नीराज्यो यत्र तत्र प्रवसति जनता दुर्जुगुप्स्यश्च तस्मातस्मान्निष्कासितोऽभूत्तनुमलकलितो विस्रयन् सर्वकाष्ठाः ॥ ११९ ॥ -१२२ ] वर्चोगृहं विषयिणां मदनायुधस्य नाडीव्रणं विषमनिर्वृतिपर्वतस्य । प्रच्छन्नपातुकमनङ्गमहाहिरन्ध्र माहुर्बुधा जघनरन्ध्रमधः सुदत्याः ॥ १२० ॥ आलम्बनविभावा ये जुगुप्स्यपुरुषादयः । उद्दीपनविभावाः स्युर्व्रणगन्धादयस्त्विह ॥१२१॥ नासाच्छादतवेगाद्या अनुभावास्तु सात्त्विकाः । पुलकाद्यास्तु निर्वेदप्रमुखा व्यभिचारिणः ॥ १२२ ॥ विभावाद्यैस्तु यः पुष्टो विस्मयः सोऽद्भुतो यथा । चक्रे नेत्रे च सूतोऽपरपरसमयो वाजिनः सूतभेदाः सूताभित्र रथी च त्रिजगति नियता ज्या रथो वायुतत्त्वम् । २५५ रहित, जनतासे तिरस्कृत, इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं तथा ये शरीर के मलको धारण किये हुए सभी दिशाओंको दुर्गन्धमय बनाते हुए उन उन स्थानोंसे निकल गये हैं ॥ ११९ ॥ विद्वानोंने रमणियोंके वराङ्गको विषयी मानवों का वर्चोगृह - मलमूत्रत्यागस्थान, कामके अस्त्रका नाडीव्रण, कठिन निवृत्तिरूपी पर्वतकी गुप्त कन्दरा तथा कामरूपी सर्पका भयंकर बिल कहा है ॥१२०॥ बीमत्स रसके आलम्बन और उद्दीपन विभाव बीभत्सरसमें घृणा करने योग्य पुरुष आदि आलम्बन विभाव हैं तथा व्रण, दुर्गन्धि, पीब इत्यादि उद्दीपन विभाव होते हैं ॥ १२१ ॥ वीभत्सरस सात्त्विक और व्यभिचारी भाव वोभत्स रस में नाकको बन्द करना, वेग इत्यादि तथा रोमांच आदि सात्त्विक भाव हैं । निर्वेद इत्यादि व्यभिचारी भाव होते हैं ॥ १२२॥ अद्भुतरस - विभाव, अनुभाव इत्यादिसे परिपुष्ट विस्मय स्थायीभाव ही अद्भुतरस के रूप में परिणत हो जाता है । यथा— जिसमें दृष्टि ही चक्र है, पूर्वापर समय ही सारथि है, शुद्धाशुद्ध, सद्भूतासद्भूत, निश्चय व्यवहाररूपी नय ही घोड़े हैं, भावी जिन ही रथी हैं, तीनों लोकों में निश्चित दया ही धनुषकी प्रत्यंचा है, वायुतत्त्व — निःसंगत्व हो रथ है, अत्यन्त स्थिर ध्यान ही For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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