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________________ २३६ अलंकारचिन्तामणिः [५६४३स्मृतिः पूर्वानुभूतार्थविज्ञानं कथितं यथा । चक्रिनित्यमहोरस्थश्रीसुखं कोऽनु वर्णयेत् । यत्सकृत्परिरब्धाया मे सुखं वर्णनातिगम् ॥४३॥ मरणाय प्रयत्नो यः सा मृतिः कथिता यथा । रथाङ्गेऽभियोगासहा कामिनी सा विधत्ते 'श्रुती कोकिलारावशक्ते । दशाविन्दुदुष्टो तन मन्दवायुस्पृशं घ्राणमम्भोरुताघ्राणशक्तम् ।।४४॥ मद्यादिविहितो मोहदृष्टिव्यतिकरो मदः । अयुक्तसंजल्पनवान् प्रमत्तः सभ्रान्तिरस्या मधुपः सुवक्षः। प्रविष्टवान् रागगतः सलीलं यथा बिसिन्या मधुपोऽन्तरङ्गम् ॥४५॥ स्मृति-पूर्व अनुभूत पदार्थोंको यादगारको स्मृति कहते हैं। स्मृतिका अभिप्राय है कि पहले कभी अनुभवमें आयी हुई किसी वस्तुका पुननि । इसकी उत्पत्ति सतत वस्तुके अनुभव अथवा चिन्तनसे होती है। कुछ विद्वान् स्वास्थ्य, चिन्तन, दृढ़ अभ्यास, सदृशावलोकन आदि कारणोंसे स्मृतिका उद्भव मानते हैं । यथा-चक्रवर्ती भरतके नित्य महावक्षपर स्थित लक्ष्मीके सुखका कोन वर्णन करे ? जिसने एक बार ही मुझे आलिंगन किया था, वह सुख वर्णनातीत है ॥४३।। मृति और मरण-वियोग इत्यादिसे उत्पन्न कष्टके कारण मरने के लिए जो प्रयत्न किया जाता है उसे मृति कहते हैं। प्राणत्यागका नाम मरण है। शरीरादिके द्वारा यह सम्भव है और इसमें अंगभंग, शरीरपात हुआ करते हैं। मरणरूप व्यभिचारी भावका वास्तविक अभिप्राय मृत्यु नहीं, अपितु मृत्युको पूर्व अवस्था है। यह अवस्था व्याधि, अभिघात आदि कारणोंसे उत्पन्न होती है। यथा-चक्रवर्ती भरतके वियोगको सहने में असमर्थ कोई कामिनी कोयलके शब्दोंमें अपने कानोंको, चन्द्रबिम्ब में अपनी आंखोंको, मन्द पवनके स्पर्श में अपने शरीरको और कमल पुष्पोंके सूंघने में अपनी नासिका को लगा रही है ॥४४॥ मद-मद्यपान इत्यादिसे प्राप्त मोहके साथ आनन्दके सम्मिश्रणको मद कहते हैं। मद सौभाग्य, यौवन, गर्व आदि कारणोंसे उत्पन्न होता है। यथा-अनाप-सनाप बकता हुआ मतवाला घबराहट युक्त रागी कोई मद्यपायो उस नायिकाके सुन्दर वक्षस्थलमें लोलापूर्वक वैसे ही प्रविष्ट होता है जैसे मतवाला भ्रमर कमलके पुष्पके भीतरी भागमें प्रविष्ट होता है ॥४५॥ १. श्रुतिम्-ख । २. सक्तम्-ख । ३. मधुपस्य वक्षः-ख । ४. प्रविष्टवासाग्रगत-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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