SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१६ अलंकारचिन्तामणिः [४।३२२स्तोत्रकोटिं वितीर्यास्मै चक्रिणे कविकुञ्जराः । 'धनकोटी लभन्ते स्म दत्तां'चक्रीशना सता ॥३२२।। नतिमूलधनं दत्वा भव्यजोवैः स्वयंभुवे । त्रीणि रत्नानि लभ्यन्ते दुर्लभानि जगत्त्रये ॥३२३।। प्रणाममूलधनतो रत्नत्रयस्याधिक्यमिति न्यूनाधिकपरिवृत्तिः । युद्धे जयकुमारेण जिता गवितभूभुजः ।। भूषणानि किरातेभ्यो दत्वा गुजादि भेजिरे ॥३२४।। त्यज्यमानमण्डनवस्त्रादे दीयमानगुजामणिवल्कलादिकं न्यूनमिति अधिकेन न्यूनपरिवृत्तिः शृङ्खलामूलालंकारानाह प्रत्युत्तरोत्तरं हेतुः पूर्व पूर्व यथा क्रमात् । असौ कारणमालाख्यालंकारो भणितो यथा ॥३२५॥ धर्मेण पण्यसंप्राप्तिः पण्येनार्थस्य संभवः। अर्थेन कामभोगश्च क्रमोऽयं चक्रिणि स्फुटः ।।३२६।। समपरिवृत्तिका उदाहरण ___ श्रेष्ठ कविगण इस चक्रवर्तीको प्रशंसामें करोड़ों स्तोत्र भेंटकर इससे करोड़ोंको संख्यामें धनराशि प्राप्त करते हैं ॥३२२।। न्यूनाधिक परिवर्तका उदाहरण भव्यजीवोंके द्वारा आदि जिनेश्वरको नमस्काररूपी मूलधन देकर तीनों लोकोंमें अलभ्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप तीन रत्न प्राप्त किये जाते हैं ॥३२३॥ रण में जयकुमारसे पराजित हुए घमण्डी राजाओंने अपने बहुमूल्य आभूषणोंको किरातोंको देकर उनसे गुंजाफल प्राप्त किये ॥३२४॥ त्याग किये जाते हुए अलंकार और वस्त्रादिसे लिये जाते हुए गुंजा, मणि, वल्कलादि न्यून हैं; अतएव यहाँ अधिकसे न्यूनका विनिमय हुआ है । शृंखला न्यायमूलक अलंकारोंका वर्णन किया जाता है। कारणमालालंकारका स्वरूप जहाँ पूर्व-पूर्व वणित पदार्थ उत्तरोत्तर वणित पदार्थोके कारणरूपमें वर्णित होते चलें, वहाँ कारणमाला अलंकार होता है ॥३२५॥ उदाहरण धर्मसे पुण्यको प्राप्ति, पुण्यसे धनकी प्राप्ति और धनसे काम एवं भोगकी प्राप्ति, यह क्रम चक्रवर्ती भरतमें स्पष्ट था ॥३२६।। १. धनकोटिम् ख-। २. चक्रेशिना....-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy