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-३२१] चतुर्थः परिच्छेदः
२१५ 'नूतनसंगे लज्जया दीर्घायुभवेति वक्तुमशक्तया स्वकर्णस्पर्शनेन तदर्थः प्रकाशितः।
महासमृद्धिरम्याणां वस्तूनां यत्र वर्णनम् । विधीयते च तत्र स्यादुदात्तालंक्रिया यथा॥३१९।। समवसरणमध्ये 'ब्रह्मपादप्रणम्रान् मुकुटघटितरत्नान् दिग्विराजप्रभाङ्गान् । त्रिदशमनुजराजान् स्तोत्रसंघट्टरम्यान् प्रमुदितमनसस्तान् वोक्ष्य दृष्टः स चक्री ॥३२०॥ भवेद्विनिमयो यत्र समेनासमतः सह । समन्यूनाधिकानां स्यात् परिवर्तिस्त्रिधा यथा ॥३२१।।
समेन समन्यूनाधिकयोरक्रमाभ्यामधिकन्यूनाभ्यां सह विनिमयः परिवृत्तिः। तत्र समेन सह परिवृत्तिर्यथा।
प्रथम संगममें लज्जाके कारण दीर्घायु होइए, यह कहने में असमर्थ होती हुई अपने कानके स्पर्शसे उक्त अर्थ सूचित कर दिया । उदात्त अलंकारका स्वरूप
जहाँ लोकोत्तर वैभव अथवा महान् चरित्रको समृद्धिका वर्ण्यवस्तु अंगरूपमें वर्णन किया जाये, वहाँ उदात्त अलंकार होता है ॥३१९॥
उदाहरण
__ वह चक्रवर्ती भरत समवशरणमें आदितीर्थंकरके चरणोंमें विनत, मुकुटोंमें जटिल रत्नवाले, दिशाओं में सुशोभित प्रभापूर्ण अंगवाले, स्तोत्रपाठमें संलग्न रहनेसे सुन्दर, प्रसन्न मनवाले देवराजों और नरेशोंको देखकर प्रसन्न हुआ ॥३२०॥ परिवृत्ति अलंकारका स्वरूप
जहाँ सम, न्यून और अधिकका जो समान नहीं है, उसका समानके साथ विनिमय-आदान-प्रदान हो, वहाँ परिवृत्ति अलंकार होता है। परिवृत्तिका अर्थ है परिवर्तन विनिमय अर्थात् वस्तुओं का आदान-प्रदान । कवि प्रतिभोत्पन्न विनिमयके वर्णनसे चमत्कृति उत्पन्न होती है ॥३२१॥
इसके तीन भेद हैं-(१) समपरिवृत्ति (२) न्यून परिवृत्ति और (३) अधिक परिवृत्ति । सम न्यून और अधिकका क्रमरहित अधिक और न्यूनके साथ विनिमयको परिवृत्ति कहा जाता है ।
१. नूतनसङ्गमे -ख । २. ब्रह्मवादे....-ख । ३. समेन समस्य न्यूना....-क ।
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