SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९८ अलंकारचिन्तामणिः [ ४१२६३___ मुग्धस्त्रीणां नूतनसंगमे महति लज्जेति । सामान्ये प्रकृते विशेषात् सामान्यप्रतीतिः। सूर्यो तेजसा इवेन्दुश्च निष्कान्तिरिव जातवानु । भरतेशमहीनाथे शोभमाने भुवि स्फुटम् ।।२६३।। 'सूर्यादेरतेजस्त्वादिभिः कार्यभूतैः कारणभूतं च प्रतापादि गम्यत इति कार्यात् कारणप्रतीतिः । भरतेशमहीभतः कामधेनोरनश्वरीम् । स्थितां मयि दयादृष्टिं पश्यन् विस्मयसे कथम् ।।२६४॥ पूर्व दरिद्रस्त्वमिदानीमीदृशैश्वर्यवान् कथं भवसीति कार्य पृष्टवते विस्मयं गताय मित्राय कारणभूतक्रिकृपादृष्टिरुक्तेति कारणात् कार्यप्रतीतिः गम्यत्वप्रस्तुतेः पर्यायोक्त दोयते।। प्रस्तुतस्थैव कार्यस्य वर्णनात् प्रस्तुतं पुनः । कारणं यत्र गम्येत पर्यायोक्तं मतं यथा ।।२६५।। मुग्धा नारियोंको प्रथम प्रियतम संगमें बड़ी लज्जा होती है, इस सामान्यके कथन में प्रकृत में विशेषरूपसे सामान्यको प्रतीति की गयी है। पृथ्वीमण्डलपर चक्रवर्ती भरतके स्पष्टतया देदीप्यमान होनेपर सूर्य तेजोविहीन तथा चन्द्रमा कान्तिहीनके समान प्रतीत हुए ॥२६३॥ सूर्य इत्यादिके कार्यभूत 'तेजोराहित्य' इत्यादिके द्वारा कारणभूत प्रतापादिकी प्रतीति होती है, अतः यहाँ कार्यसे कारणकी प्रतीति हुई है । भरत चक्रवर्तीरूपी कामधेनुको मुझपर विद्यमान कभी न नष्ट होनेवाली कृपादृष्टिको देखकर आप क्यों आश्चर्यचकित होते हैं ॥२६४॥ पहले तुम दरिद्र थे, अब सम्पत्तिशाली कैसे हो गये, इस प्रकार पूछनेवाले आश्चर्यचकित मित्रको भरतचक्रवर्तीकी कृपादृष्टि बतलायी गयी है। अतएव यहाँ कार्यसे कारण की प्रतीति हुई है। अब क्रमप्राप्त प्रस्तुतसे प्रतीयमान पर्यायोक्तका लक्षण कहते हैं- . पर्यायोक्त अलंकारका स्वरूप जहाँ प्रस्तुत कार्यके वर्णनसे प्रस्तुत कारणको प्रतीति हो, वहाँ पर्यायोक्त अलंकार होता है ।।२६५।। १. सूर्यादि....-ख। स्मयते कथं -खप्रतौ। ६. गोयते -ख। २. कारणभूतं चक्रिगतं प्रतापादि....-ख । ३. पश्यन्ति ४. ईदृगैश्वर्यवान् -ख। ५. कारणभूता चक्रि....-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy