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________________ -२६२] चतुर्थः परिच्छेदः १९७ मानान्तर्भावशङ्का द्वयोरपि गम्यगमकयोरनुमानालंकारे 'प्रकृतत्वोपगमनात् । एतेन पर्यायोक्तविच्छित्तिरपि । पलाशे कोकिला माध्वं सुस्वादुफलवजिते । आध्वं पक्वफलानने सहकारे सुखप्रदे ॥२६०।। अत्र कोकिलवृत्तान्तेनाप्रकृतेन सर्वानाप्ताभासान् विहायानन्तसुखप्रदः पुरुरेक एव भव्यैः सेव्य इति प्रकृतं गम्यते । सारोपा तु भूपालकुञ्जराः श्रेष्ठाः शौर्यवैभवशालिनः । वेधसो महतों सृष्टिं सर्वमान्यां प्रचक्रिरे ॥२६१।। चक्रिणो गुणमहत्त्वे प्रकृते नृपसामान्यविशेषप्रतीतिः। वक्तुकामापि न ब्रूते द्रष्टुकामा न पश्यति । स्पृशति स्प्रष्टुकामापि न कान्ता सावतिष्ठते ॥२६२॥ कार्य इत्यादिसे कारणको प्रतीति होनेपर अनुमानालंकारमें अन्तर्भाव होनेकी आशंका भी नहीं की जा सकती है; क्योंकि अनुमानमें गम्य और गमक दोनोंका प्रकृतमें उपयोग होता है। इस कथन द्वारा पर्यायोक्ति और विच्छित्ति में भी अन्तर देखा जा सकता है। अप्रस्तुत प्रशंसाका उदाहरण हे कोकिलाओ ! स्वादिष्ट फलसे रहित पलाश वृक्षपर मत बैठो; किन्तु पक्वफलभारसे नम्रीभूत सुखदायी आम्रपर बैठो; इस अप्रकृतसे पुरु सेव्य है, इस प्रकृतको प्रतीति होती है ॥२६०॥ यहाँ प्रकृत कोकिलके वृत्तान्तसे आप्तरूपसे प्रतीत होनेवाले सभी आप्ताभासोंको छोड़कर अनन्त सुखदायी केवल पुरु ही भव्य जीवोंसे सेव्य हैं, इस प्रकृत अर्थको प्रतीति होती है । सारोपा लक्षणा द्वारा निष्पन्न अप्रस्तुत प्रशंसा उत्तम तथा वीरता और सम्पत्तिसे युक्त गजराजोंके समान प्रतीत होनेवाले राजाओंने आदिब्रह्माकी विस्तृत सृष्टिको सर्वमान्य बनाया ॥२६१॥ चक्रवर्तीके गुणोंका महत्त्व प्रकृत है, इसमें नृप सामान्यकी प्रतीति होती है । नवीन परिणीता वधू बोलना चाहती हई भी नहीं कोलती है; देखना चाहती हुई भी नहीं देखती है, एवं स्पर्श चाहती हुई भी स्पर्श नहीं करती है, वह केवल स्थित है ॥२६२॥ १. प्रकृतत्वोपगमात् क-ख । २. सर्वानाप्तान् विहाय -ख। ३. सारोपा तु इत्यस्य स्थाने सारूप्यात् --क-ख । ४. श्रेष्ठाः इत्यस्य स्थाने सृष्टाः -ख । ५. नृपसामान्यमुक्तमिति सामान्याद्विशेषप्रतीतिः -क-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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