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अलंकारचिन्तामणि
सौन्दर्य मुखका उपस्कारक होता है । उपमामें यह उपरंजन सादृश्यप्रत्यायन तक सीमित है । रूपकमें वह ताद्रूप्य प्रतीति में पर्यवसित होता है और उत्प्रेक्षा में साध्याध्यवसाय के सौन्दर्यमें | इन तीनों ही अलंकारोंमें उपमान या आरोप्यमाण उपमेय या आरोप्य विषयका उपरंजन करता है । यही उसका अन्तिम लक्ष्य है । वाक्यार्थ की विश्रान्ति भी प्रकृतार्थ के उपरंजनसे होती है ।
परिणामालंकार में कवि जिस आरोप्यमाणका प्रयोग करता है वह प्रकृतार्थका उपरंजक तो होता ही है पर साथ ही उसकी प्रकृतार्थ में उपयोगिता समाविष्ट रहती है । रूपकमें विषयीका आरोप, प्रकृतार्थोपरंजन कर विश्रान्त हो जाता है । पर परिणाममें वह आरोप विषय बनकर विश्रान्त होता है । ' मुखं चन्द्र: ' की सौन्दर्य - प्रतीतिमें चन्द्रका मुखके रूपमें कोई उपयोग नहीं । मुखमें चन्द्रके रूपका आरोप भर होता है । इतना ही नहीं रूपकके रूप समारोप और परिणाम के रूप समारोप में भी अन्तर है । प्रथममें विषयी विषयको अपने रूपसे सर्वथा रूपित कर देता है । विषयका रूप विषयीके रूप में घुला मिला दिखलाई पड़ता है । वह अपने स्वरूपसे च्युत हो जाता है, पर परिणाममें विषयीका उपयोग शेष रहता है, अतः वह विषयीके रूपमें सर्वथा अपनेको घुलातामिलाता नहीं । वह अपने स्वरूपसे च्युत नहीं होता । ' मुखं चन्द्र: ' में मुख, चन्द्रके सौन्दर्य में विलीन हो जाता है और फिर उसका कोई उपयोग न होनेके कारण उसका स्वरूप नष्ट सा हो जाता है । पर इसके विपरीत 'मुखचन्द्रेण तापः शाम्यति', परिणामालंकारके इस उदाहरणमें चन्द्र अपने रूपसे मुखको रूपित तो करता ही है पर साथ ही मुख अपना स्वरूप नहीं खोता, क्योंकि अभी भी तापशमनके साथ उसका उपयोग शेष है । परिणामालंकार के उदाहरण में दो अंश हैं - १. मुख चन्द्र और २ तापशमन । प्रथम अंश रूपसमारोपका है और दूसरा उपयोगका । अतः स्पष्ट है कि परिणाममें न केवल रूपसमारोप होता है, अपितु व्यवहार - समारोप भी होता है । समासोक्ति में भी अप्रकृतिके व्यवहारका प्रकृतिपर आरोप होता है, पर वहाँ अप्रकृत --- विषयीका उपादान नहीं होता, वह प्रतीयमान रहता है; किन्तु परिणाममें विषय और विषयी दोनोंका उपादान होता है तथा अप्रकृत-प्रकृतोपयोगी होता है । आरोप्यमाण यदि केवल प्रकृतार्थका उपरंजन करता है तो उसमें केवल औचित्य भर है; यदि वह प्रकृतार्थका सम्पादक भी है तो उसमें उपयोगिता भी समाविष्ट है । परिणाम में प्रकृतार्थपर अप्रकृतार्थका रूप- समारोप ही नहीं, व्यवहार समारोप भी किया जाता है । आशय यह है कि प्रकृतार्थ की दृष्टिसे आरोप्यमाणका औचित्य तो सभी अलंकारोंमें पाया जाता है, किन्तु उसका उपयोग केवल परिणाममें ही होता है । इस प्रकार अजित सेनने रूपककी परिभाषा में जितने पदोंका समावेश किया है वे सभी पद, अन्य अलंकारोंके स्वरूपों के विभच्छेदक हैं ।
इस परिच्छेद में अलंकारोंके पारस्परिक भेदोंका भी निरूपण आया है । भेदोंका
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