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________________ प्रस्तावना २१ हो विस्तारके साथ विवेचन किया गया है। यह विवेचन अन्य अलंकार ग्रन्थोंसे भिन्न न होनेपर भी विशिष्ट अवश्य है। अलंकारचिन्तामणिके इस परिच्छेदमें कुल बहत्तर अलंकारोंका स्वरूप और उदाहरण आया है। अजितसेनकी अलंकारनिरूपणसम्बन्धी यह प्रमुख विशेषता है कि वे लक्षणोंमें प्रयुक्त पदोंकी सार्थकता दिखलाते हैं। यहाँ उदाहरणार्थ रूपक अलंकारकी परिभाषाको लिया जा सकता है। इस अलंकारकी परिभाषामें जितने पद प्रयुक्त हैं, वे सभी अन्य अलंकारोंमें लक्षणको घटित नहीं होने देते हैं । बताया है अतिरोहितरूपस्य व्यारोपविषयस्य यत् । उपरञ्जकमारोप्यं रूपकं तदिहोच्यते ॥ __ मुखं चन्द्र इत्यादौ मुखमारोपस्य विषयः आरोप्यश्चन्द्रः अतिरोहितरूपस्येत्यनेन विषयस्य संदिह्यमानत्वेन तिरोहित-रूपस्य संदेहस्य, भ्रान्त्या विषयतिरोधानरूपस्य भ्रान्तिमतः अपह्नवेनारोपविषयतिरोधानरूपस्यापह्नवस्यापि च निरासः । व्यारोपविषयस्येत्यनेनोत्प्रेक्षादेरध्यवसायगर्भस्योपमादीनामनारोपहेतुकानां व्यावृत्तिः ॥ उपरञ्जकमित्येतेन परिणामालंकारनिरासः । जहाँ प्रत्यक्ष, अतिरोहित, आरोपके विषयका आरोग्य विषय उपरंजक होता है वहाँ रूपक अलंकार माना जाता है। 'मुखं चन्द्रः' इत्यादि उदाहरणमें आरोपका विषय है मुख और आरोप्य है चन्द्रमा । अतिरोहित रूप इस विशेषणका सन्निवेश होनेसे विषयके सन्दिह्यमान होनेके कारण तिरोहित रूप विषयवाले सन्देहालंकार भ्रान्तिके कारण, विषयके तिरोधानवाले भ्रान्तिमानालंकार अपह्नवसे आरोप विषयके तिरोधानके कारण अपह्नव अलंकारोंमें रूपकका लक्षण घटित नहीं होगा। 'व्यारोपविषयस्य' इस पदके उपादानके कारण अध्यवसाय, गर्भ, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारोंकी एवं अनारोपहेतुक उपमादि अलंकारोंकी व्यावृत्ति हुई है। 'उपरञ्जकम्', इस पदके सन्निविष्ट होनेसे रूपकका यह लक्षण परिणामालंकारके लक्षणसे व्यावृत्त होता है, क्योंकि परिणामालंकारमें प्रकृतिका उपयोगी होनेसे आरोप्यमाणका अन्वय होता है न कि प्रकृतिके उपरंजक होने के कारण । आरोपमें सदा दो वस्तुएँ होती हैं—आरोपविषय तथा आरोप्यमाणविषयी। उपमा हम इन्हींको क्रमशः उपमेय तथा उपमान कहते हैं। उपमान, उपमेय का सदा उपस्कार करता है। यतः एक दृष्टिसे उपमेयको आधेयगुण तथा उपमानको गुणधाता माना जाता है। जब कवि मुखकी उपमा चन्द्र से देता है तो चन्द्र के सौन्दर्यकी मुखमें प्रतीति होती है। इस सादृश्य प्रतीतिके पश्चात् उपमाका कार्य विश्रान्त हो जाता है । रूपकमें मुखको कवि जब चन्द्र कहता है तो चन्द्र-सौन्दर्यकी मुखमें अभेदेन सादृश्य प्रतीति होती है। इसीप्रकार मुखमें कवि जब चन्द्रकी सम्भावना करता है तो चन्द्र १. अलंकारचिन्तामणि, ज्ञानपीठ संस्करण, ४।१०४, पृ. सं. १४३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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