SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -२३३ ] चतुर्थः परिच्छेदः वृषभेश्वर एवैकः शक्तो भव्यप्रतोषणे । सूर्याद् विना क्षमो नान्यः सरोजपरितोषणे ॥२२९।। उभयत्र यथातथेत्यौपम्यं गम्यते । पुरोर्बहसुतेष्वेष चक्री भरत एव च । किं ज्योतिषां गणः सर्वः सर्वलोकप्रकाशकः ॥२३०॥ उक्त चअनुपात्तविवादीनां वस्तुनः प्रतिवस्तुना । यत्र प्रतीयते साम्यं प्रतिवस्तूपमा तु सा ॥२३१॥ बहुवीरेऽप्यसावेको यदुवंशेऽद्भुतोऽभवत् । कि केतक्या दलानि स्युः सुरभीण्यखिलान्यपि ॥२३२॥ वाक्ययोयंत्र चेद् बिम्बप्रबिम्बतयोदितम् । सामान्यं सह दृष्टान्तः साधर्येतरतो द्विधा ॥२३३।। व्यतिरेक प्रतिवस्तूपमाका उदाहरण केवल एक ऋषभदेव भगवान् ही भव्योंको सन्तुष्ट करने में समर्थ हैं; क्योंकि सूर्यके बिना अन्य कोई कमलोंको सन्तुष्ट करने में समर्थ नहीं हो सकता है ॥२२९॥ दोनों पद्योंमें जिस किसी प्रकारसे उपमानोपमेय भाव प्रतीत होता है। पुरु महाराजके अनेक पुत्रोंमें चक्रवर्ती यह भरत हो हुए; क्या नक्षत्रोंका समस्त गण सम्पूर्ण लोकको प्रकाशित करता है ॥२३०॥ कहा मी है जिस अलंकारमें 'इव' इत्यादि उपमावाचक शब्दोंके न रहने पर भी प्रस्तुत और अप्रस्तुतमें साम्य दिखाया जाता है, उसे प्रतिवस्तूपमा कहते हैं ॥२३१॥ उदाहरण यदुवंशमें अनेक योद्धा भरे पड़े हैं, तथापि श्रीकृष्ण उन सबसे अद्भुत ही हैं। क्यों न हों। क्या केतकीके सभी पत्ते सुगन्धित होते हैं ।।२३२।। यद्यपि 'इव' इत्यादि उपमावाचक एक भी शब्द यहाँपर नहीं है, तो भी उपमेयभूत यदुवंश और उपमानभूत केतकी में साधर्म्यको प्रतीति होती है। अतएव यह 'प्रतिवस्तूपमा' है। दृष्टान्तालंकारका स्वरूप और भेद जहाँ दो वाक्योंमें बिम्ब-प्रतिबिम्बभावरूप सामान्य धर्मका कथन हो, वहाँ दृष्टान्तालंकार होता है। इसके दो भेद हैं-(१) साधर्म्य दृष्टान्तालंकार और (२) वैधर्म्य दृष्टान्तालंकार ॥२३३॥ १. गम्यते इत्यनन्तरं क-खप्रतो 'इयमपि सा' अधिकः पाठः । २. अनुपात्तविनादीनाम् -ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy