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________________ १८५ -२२५ ] चतुर्थः परिच्छेदः प्रस्तुताप्रस्तुतानां समस्तानामेव यत्र 'समधर्मयोगेनौपम्यं तद्दोपकम् । भात्यधो विष्टपे नागराजः स्वर्गे सुरेश्वरः । आनन्दमन्दिरे क्षेत्रे भरते भरतेश्वरः ॥२२३॥ पद्यादिवर्तिनो भातीतिपदस्य प्रत्येकमभिसंबन्धादादिदीपकम् । मौक्तिकैरुदधिर्भाति ज्वलत्तेजोभिरंशमान् । शीतलैः किरणैरिन्दुः स्वगुणैर्भरतेश्वर ः ॥२२४।। मध्यदीपकम् । ज्योत्स्नया वरया चन्द्रः सुरनद्या महांबुधिः । सुरेन्द्रो दिव्यया चक्रो कोा 'चारु विराजते ॥२२५।। अन्त्यदीपकमिदम् । श्लोकत्रयेऽत्र यथातथेत्यौपम्यं गम्यते । क्वचिदौपम्याभावेऽपि दीपकं यथा जहाँ समस्त ही प्रस्तुत और अप्रस्तुत पदार्थों का समधर्मके सम्बन्धसे औपम्य प्रतीत होता है, उसे दीपक कहते हैं । आदि दीपकका उदाहरण पातालमें नागराज, स्वर्गमें इन्द्र और इस आनन्दनिकेतन भरतक्षेत्रमें चक्रवर्ती भरत सुशोभित हो रहे हैं ॥२२३॥ पदके.आदिमें रहनेवाले 'भाति' क्रियापदका प्रत्येकमें सम्बन्ध होनेसे यहाँ आदिदोपक है। मध्यदीपकका उदाहरण ___ मोतियोंसे समुद्र, जलते हुए तेजोंसे सूर्य, शीतल किरणोंसे चन्द्रमा और अपने गुणोंसे राजा भरत सुशोभित हो रहे हैं ॥२२४॥ अन्त्यदीपकका उदाहरण सुन्दर चन्द्रिकासे चन्द्रमा, गंगासे समुद्र, सुन्दरमालासे इन्द्र तथा कीर्तिसे चक्रवर्ती भरत बहुत सुशोभित हो रहे हैं ॥२२५।। यह अन्त्य दीपक है। तीनों पद्योंमें जिस किसी प्रकारसे उपमानोपमेयभाव प्रतीत हो रहा है। ___ कहीं उपमानोपमेय भावके न रहनेपर भी दीपक अलंकार होता है । यथा १. समधर्मयोरेकोपम्यम्-ख। २. ज्योत्स्नाया -ख। ३. चक्री -ख । ४. त्रयेपि अत्र-ख । २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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