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________________ -२१८ ] चतुर्थः परिच्छेदः १८३ लक्ष्मीसुभद्रादेव्योरनुरूपयोर्योग इति समालंकारः। विषमपर्यन्तं विरोधगर्भालंकारा दर्शिताः । विषमवैसादृश्यात् सममुक्तम् । इदानीं गम्यमानौपम्यालंकारा उच्यन्ते । केवलप्रस्तुतान्येषामर्थानां समधर्मतः। यत्रौपम्यं प्रतीयेत भवेत्सा तुल्ययोगिता ॥२१६॥ केवलप्रकरणिकाणां यथाभरते सिंहपीठस्थे कीर्तयो द्विषदङ्गनाः । नित्यभ्रान्तियुजो यान्ति सितिमानं प्रतिक्षणम् ॥२१७।। यशसां रिपुयोषितां च प्रस्तुतत्वं, शुभ्रतां यान्तीति समानधर्मः। अन्येषां केवलाप्रस्तुतानां यथा इन्द्रनागेन्द्रसिंहाब्धि-दिग्दन्तिकुलपर्वताः । चक्रिणि भ्राजमानेऽत्र मिथो निःसारतां गताः ॥२१८॥ यहाँ लक्ष्मी और सुभद्रादेवी इन दोनों समान योग्यतावाली वस्तुओंका वर्णन है, अतः सम अलंकार है। विषमालंकार तक विरोधमूलक अलंकार वणित हैं। विषममें सर्वथा असदृशविपरीत होने के कारण समालंकारका वर्णन किया गया है। अब प्रतीयमान उपमेयोपमानवाले अलंकारोंका वर्णन करते हैं। तुल्ययोगिता अलंकारका स्वरूप जिसमें प्रस्तुतसे भिन्न अर्थोके सादृश्यके कारण सादृश्य प्रतीत हो, उसे तुल्ययोगिता कहते हैं ॥२१६॥ तुल्ययोगिताका उदाहरण चक्रवर्ती भरतके राजसिंहासनासीन होनेपर कीर्तिरूपी शत्रु-नारियाँ क्षण-क्षण शुभ्रताको प्राप्त करती है ॥२१७॥ प्रस्तुत यश और शत्रु नारियोंका शुभ्रताको प्राप्त करना सादृश्य है। अनेक प्रस्तुतोंका सम्बन्ध एक ही साधारण धर्मसे बताया गया है। अप्रस्तुतोंके सम्बन्ध तुल्ययोगिताका उदाहरण इस लोकमें चक्रवर्ती भरतके देदीप्यमान रहनेपर इन्द्र, ऐरावत, सिंह, समुद्र, दिग्गज और कुलपर्वत ये सभी पदार्थ निस्सारताको प्राप्त हुए ॥२१८।। १. केवलप्राकरणिका.... -क । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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