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________________ १७६ अलंकारचिन्तामणिः एवं दशधा विरोघो दर्शितः श्लेषाश्लेषाभ्यां च विचारणीयः । अथ विरोधगर्भालंकृतयः कथ्यन्ते । आधारं विना यत्राधेयं विरच्यते स एको विशेषः । एकमनेकविषयमिति द्वितीय विशेषः । प्रकृतस्याशक्यवस्त्वन्तरकरणमिति तृतीय इति विशेषालंकारस्त्रिधा । क्रमेणोच्यते आधार रहिताधेयविशेषालंकृतिर्यथा । पुरुभाषाश्रिता मैत्रीबाभाच्चक्रिगिरा चिरम् ॥ १९८ ॥ अत्रादीशस्य प्राचीनस्थाधारभूतस्य परममुक्ति गतस्य तिरोधानेऽप्याश्रिताया उक्त रुत्तर 'कालवर्तिचक्रिभाषया सह स्थितिः । एकस्यानेकधात्वे तु विशेषालंकृतिर्यथा । चक्यालोकेन सर्वत्र धावन्ति स्मारयो भयात् ॥ १९९॥ [ ४|१९८ इस प्रकार दस प्रकारका विरोध दिखलाया गया है । इसमें कहीं श्लेष है और कहीं नहीं भी है, उसका विचार कर लेना चाहिए । अब विरोधगर्भ अलंकार कहते हैं । विशेष अलंकारका स्वरूप और भेद आधार के बिना आधेयकी स्थिति कही जाय, वहां प्रथम; जहाँ एक वस्तुका एक ही समय में अनेकत्र वर्णन किया जाय, वहाँ द्वितीय एवं जहाँ एक कार्यके आरम्भसे किसी अन्य अशक्य कार्यकी सिद्धिका वर्णन किया जाय, वहाँ तृतीय विशेष अलंकार होता है । क्रमशः इनके लक्षण और उदाहरण - प्रथम विशेषका लक्षण एवं उदाहरण आधाररहित आधेयका जहाँ वर्णन होता है, उसे प्रथम विशेष अलंकार कहते हैं । जैसे – पुरुभाषा में आश्रित मैत्रीचक्री भरतको वाणीके साथ बहुत दिन तक रहे ॥१९८॥ यहाँ पूर्व में आदीश्वर भगवान्‌के मुक्त हो जानेपर भी उत्तरकालमें होनेवाले भरतचक्रीकी भाषा के साथ उनकी दिव्यध्वनिको मंत्री — स्थिति बतलायी है । द्वितीय विशेषका स्वरूप एवं उदाहरण एक वस्तुका अनेक रूपसे वर्णन करनेसे द्वितीय विशेष अलंकार होता है । यथा - चक्रवर्ती भरतके सर्वत्र दिखलाई पड़ने से शत्रु लोग भयके कारण सभी जगह दौड़ रहे थे ॥ १९९ ॥ १. कालवति चक्रिभाषया सह स्थितः - ख । २. नेकदात्वे तु-ख । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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