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________________ १७२ अलंकारचिन्तामणिः [ ४११८४यत्र संनिधिरूपे तु हेतो सत्यपि वस्तुनः । नेतरस्य गुणादानं सोऽलङ्कारो ह्यतद्गुणः ।।१८४॥ आदीशबाहुबल्यङ्गस्वर्णगारुत्मतत्विषा । लोके किं मीलिते चक्रिकीर्तिः शौक्ल्यं न चात्यजत् ॥१८५।। पुरुजिनस्य भुजबलिकेवलिनश्च कायप्रभाशबलिते जगति सर्वत्र व्याप्तस्य चक्रियशसः स्वकीय एव धवलिमा जृम्भितः । विरोधस्यातद्गुणेन किञ्चित्प्रारब्धत्वाद्विरोध उच्यते ॥ यत्राभासतया पूर्व विरुद्धत्वं प्रतीयते।। परिह्रियेत पर्यन्ते विरोधालंकृतियथा ।।१८६।। चतुस्त्रियक'जात्यायैस्तद्भेदाश्चतुरादयः । जातिक्रियागुणद्रव्यविरोधे क्रमतो दश ॥१८७।। अतद्गुणका लक्षण जिसमें सामीप्यरूप हेतुके रहनेपर वस्तुके अपनेसे अतिरिक्त वस्तुके उत्कृष्ट गुण ग्रहणका वर्णन न किया जाता हो, उसे अतद्गुणालंकार कहते हैं ॥१८४।। आशय यह है कि जहाँ समीपस्थ वस्तुके गुणग्रहणकी सम्भावना होनेपर भी गुण न ग्रहण किया जाना वर्णित हो, वहाँ अतद्गुण अलंकार होता है । अतद्गुणका उदाहरण आदीश्वर और बाहुबलीके स्वर्ण एवं मरकतमणिको शारीरिक कान्तिके मिलनेपर भी संसारमें चक्रवर्तीको कोतिने शुक्लताका त्याग नहीं किया ॥१८५॥ परुदेव और केवली बाहबलीके शरीरको प्रभासे मिले हए जगत्में सभी जगह व्याप्त चक्रवर्तीके यशका धावल्य ही वर्णित है। अर्थात् स्वर्ण और गारुडमणिके मिश्रितरूपने भरतके यशधावल्यको तिरोहित या तद्गुणमय नहीं बनाया। विरोधका अतद्गुणसे कुछ आरम्भ हो जाने के कारण विरोधालंकारका वर्णन किया जाता है। जिसमें आभास-असत्य प्रतीतिके कारण पहले विरोध प्रतीत हो, किन्तु अन्त में उसका परिहार कर दिया जाय, उसे विरोधाभास या विरोधालंकार कहते हैं ॥१८६॥ विरोधके भेद जाति, गुण, क्रिया और द्रव्यके साथ चार, तीन, दो और एक इस प्रकार दस भेद होते हैं ।।१८७॥ १. जात्यादेस " -ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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