SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -१८३] चतुर्थः परिच्छेदः १७१ यशसि जृम्भिते सति शशिप्रभृतीनां निर्मलवस्तूनां गुणसाम्येन तदैकात्म्यम् । अन्यगुणसंनिधानातिशयसाम्यात् तद्गुणः कथ्यते विहाय स्वगुणं न्यून संनिधिस्थितवस्तुनः । यत्रोत्कृष्टगुणादानं तद्गुणालङ्कृतिर्यथा ॥१८२॥ जिनाविनखरुक्चान्द्रया नम्रत्रिदशमौलयः । पद्मरागमणिद्योताः शुभ्रिमाढ्यतमीकृताः ॥१८३।। तत्प्रतिपक्षोऽतद्गुण उच्यते ॥ यश श्वेत होता है, उसके व्याप्त होनेसे सभी वस्तुएँ श्वेत हो गयी हैं, अतः चन्द्रमा, रजत, हिमालय, क्षीरसागर आदिमें भेद दिखलाई नहीं पड़ रहा है । श्वेत गुणसाम्यके कारण एकताका वर्णन किया गया है। तद्गुण अलंकारका स्वरूप अन्य गुणके सान्निध्यके कारण अतिशय साम्य होनेसे तद्गुण अलंकार होता है। मीलित, तद्गुण और सामान्य इन तीनों अलंकारों में वाच्य-वैचित्र्यके कारण स्पष्ट अन्तर है । तद्गुणमें एक पदार्थ अपने समीपस्य पदार्थके उत्कृष्ट गुणोंको ग्रहण भर करता है, उसमें तिरोधान नहीं होता है। यहाँ केवल अपने गुणका त्याग अवश्य होता है । सामान्यमें निजगुण त्यागनेकी बात आती ही नहीं है। यहाँ प्रस्तुत और अप्रस्तुतको स्वरूपभिन्नता का आभास सदा बना रहता है, केवल उसे सिद्ध करनेवाला व्यावर्तक धर्म अलक्षित रहता है। मोलित में एक पदार्थ दूसरे पदार्थसे इतना घुल-मिल जाता है कि उनके भिन्न स्वरूपका आभास ही नहीं होता। निष्कर्ष यह है कि एक पदार्थके गोपनमें 'मीलित', गुणग्रहणमें 'तद्गुण' और एकरूपता वर्णनमें 'सामान्य' अलंकार होता है। जिसमें स्वरूप अपने गुणको छोड़कर समीप स्थित वस्तुके श्रेष्ठ गुण ग्रहणका वर्णन हो, उसे तद्गुणालंकार कहते हैं ॥१८२॥ तद्गुणका उदाहरण--- पद्मराग मणिसे प्रकाशित प्रणाम करनेके लिए झुके हुए देवताओंके मुकुट जिनेश्वरके चरणके नखको कान्तिरूपो चन्द्रिकासे बहुत अधिक शुभ्र बना दिये गये ॥१८३॥ तद्गुण अलंकारका प्रतिपक्षी अतद्गुण अलंकार होता है। अब उसका लक्षण कहते हैJain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy