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________________ -१६२ ] चतुर्थः परिच्छेदः १६३ यत्रैकस्य प्राधान्येनान्वये सत्यन्यस्य सहार्थेनान्वयेऽतिशयोक्त्या उपमानोपमेयत्वं परिकल्प्यते सा सहोक्तिः। कार्यकारणपौर्वापर्यविपर्ययरूपातिशयोक्तिमूला अभेदरूपातिशयोक्तिश्लेषगर्भा चारुत्वातिशयहेतुरिति सा द्विधा । क्रमेण यथा-- चक्रेशगुह्योरुभटप्रयुक्तकृपाणधारा रिपुमस्तकेषु । पतन्ति साकं सुरचारुनारीकरणमुक्तोरुसुमप्रतानैः ॥१६१।। अत्रासिपातोत्तरकालभाविनोऽमरसुमन जपातस्य। समकालत्वमिति. पौर्वापर्यविपर्ययः॥ तेजोलक्ष्मी निधीशस्य प्रतिवासरमृच्छति । उदयं द्योतिताशेषदिगन्ता मनुना सह ।।१६२।। जिसमें एकका प्रधानके साथ तथा अन्यका सहार्थक शब्दके साथ अन्वय हो जानेपर अतिशयोक्तिसे उपमानोपमेयभावकी कल्पना की जाये, उसे सहोक्ति अलंकार कहते हैं। इसमें 'सह' शब्दके अर्थ-सामर्थ्य से, एक शब्द द्वारा दो अर्थोंकी ऐसी वाचकतामें देखा जाया करता है, जिसके मूलमें अतिशयोक्तिका रहना आवश्यक है। सहोक्ति अलंकारके भेद सहोक्ति अलंकारके मूलतः दो भेद हैं-(१) कार्यकारणके पौर्वापर्य विपर्ययरूपा अतिशयोक्तिमूलक और (२) अभेदाध्यवसाय अतिशयोक्तिमलक। चारुत्वातिशयका कारण अभेदाध्यवसायमूलक 'श्लेषमूलक' और 'अश्लेषमूलक' दो रूपोंमें विभक्त किया जा सकता है। प्रथमभेदका उदाहरण चक्रवर्ती भरतके विश्वसनीय सैनिकों के द्वारा प्रयोग की गयी तलवारको धारा देवताओंको सुन्दरियोंके हाथसे छोड़े हुए पुष्पोंके समूहके साथ शत्रुओंके मस्तकपर गिरती है ।।१६१॥ यहाँ सैनिकों द्वारा तलवारका पतन और देवांगनाओं द्वारा गिरायी गयी पुष्यावलिका पतन समकालरूपसे वर्णित है। अतः कार्यकारणभावके पौर्वापर्यका विपर्यय हुआ है। द्वितीयभेदका उदाहरण सम्पूर्ण दिशाओंके प्रान्तभाग तकको प्रकाशित करनेवाली चक्रवर्तीकी तेजरूपी लक्ष्मी मनुके साथ प्रतिदिन उदयको प्राप्त करती है ॥१६२॥ १. प्राधान्येनान्वयेन्यस्य....-ख । २. मूला भेदे अभेद....-क -ख । ३. दिषु -ख । ४. प्रयुक्तो -ख । ५. पूर्वापर्य....-ख । ६. लक्ष्मी....-ख । ७. भानुना -क-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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