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________________ १५० अलंकारचिन्तामणिः [४१२४मुखचन्द्रोऽपि ते कान्ते दन्दहोति च माऽदयः। दोष 'एष ममैवेति स्यात्समाधानरूपकम् ।।१२४॥ इत्यादिबहु भेदं बोद्धव्यम् । आरोपविषयत्वेनारोप्यं यत्रोपयोगि च । प्रकृते परिणामोऽसौ द्विधैकार्थेतरत्वतः।।१२५॥ आरोप्यं प्रकृतोपयोगोत्यनेन सर्वेभ्योऽलङ्कारेभ्यो वैलक्षण्यमस्य । स द्विधा सामानाधिकरण्यवैयधिकरण्याभ्यां क्रमेण द्वयं यथा 'सुधां सर्वे जिनेशस्य दिव्यभाषामयों सुराः। सदा सुखगतस्वान्ताः सेवन्ते पुरुतोषतः ॥१२६॥ *अत्रारोपविषयाया दिव्यध्वनिरूपेणारोप्यमाणायाः सुधायाः सामानाधिकरण्येन परिणामः। समाधानरूपक हे सुन्दरी ! परम दयालु तुम्हारा यह मुखचन्द्र भी मुझे अत्यधिक जला रहा है, यह दोष मेरा ही है, ऐसे रूपकको समाधान रूपकका नाम दिया गया है ॥१२४॥ इस प्रकार बहुत प्रकारके रूपकोंको समझना चाहिए । परिणामालंकार स्वरूप और भेद जिस अलंकारमें आरोप्य-आरोप विषयतासे प्रकृतमें उपयोगी होता है, उसे परिणाम अलंकार कहते हैं । इसके दो भेद हैं—(१) एकार्थ और (२) अनेकार्थ ॥१२५।। परिणामका अर्थ परिणति, परिवर्तन, बदलना या अवस्थान्तर होना है। इसमें उपमानके स्वभावका परिवर्तन दिखाना ही अभीष्ट होता है। जहाँ उपमान स्वतः कार्यके उपयोगमें असमर्थ होता है, वहां वह कार्य सम्पन्नताकी दृष्टि से उपमेय के साथ अभिन्नता प्राप्त कर लेता है। आरोग्य प्रकृतमें उपयोगी हो, इस कथनके द्वारा और सभी अलंकारोंसे इसकी विलक्षणता बतलायी गयी है। यह दो प्रकारका है--(१) सामानाधिकरण्यसे और (२) वैयधिकरण्यसे । क्रमशः दोनों के उदाहरण दिये जाते हैं । यथा सुखसे युक्त अन्तःकरणवाले सभी देवता भगवान् जिनेश्वरको दिव्यध्वनिरूपी सुधाका सर्वदा पूर्ण सन्तोषसे सेवन करते हैं ॥१२६॥ यहां आरोप विषयका दिव्यध्वनिरूपसे आरोप्यमाण सुधाका सामानाधिकरण्यरूपसे प्रकृतमें उपयोगिताके कारण परिणामालंकार है। १. एव -ख । २. विधम् -ख । ३. सुधा -ख । .४ अत्रारोपविषयभूतादिव्य....-क-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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