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________________ १६ अलंकार चिन्तामणि असत् वर्णनके अन्तर्गत है । लक्ष्मीका कमल तथा राजाके वक्षस्थल पर निवास, समुद्रमन्थन तथा समुद्रमन्थनसे चन्द्रकी उत्पत्तिका वर्णन असत् वस्तु वर्णन कविसमय है । इस प्रकार कविसमयोंका विस्तारसे निरूपण कर यमक, श्लेष और चित्रकाव्य सम्बन्धी व्यवस्थाका चित्रण किया है । इन अलंकारोंके नियोजनमें किन-किन वर्णनों में किस प्रकार विभेद माना जाता है, काव्य रचनाके नियमोंके वर्णन प्रसंग में वर्णनोंका शुभाशुभत्व, गणोंके देवता और उनका फल, बतलाया गया है । कविको काव्य-रचना करते समय पदके आरम्भमें किन-किन वर्णों और मात्राओं का प्रयोग नहीं करना चाहिए, इसका भी विचार किया है । कविके लिए विधेय और निषिद्ध बातोंका भी कथन आया है । बताया गया है कि काव्यके आदिमें भगण होनेसे सुख, जगण होनेसे रोग, सगण होनेसे विनाश, नगणके प्रयोगसे धनलाभ और मगणके प्रयोगसे शुभफलकी प्राप्ति होती है । रचना-प्रक्रिया की दृष्टिसे काव्योंके भेद-प्रभेदोंका निरूपण किया है । काव्यारम्भ करते समय किन-किन नियमोंका पालन करना आवश्यक है, इस पर भी विचार किया गया है । समस्यापूर्ति के औचित्यका कथन करते हुए समस्यापूर्ति सम्बन्धी विधि-निषेधोंका कथन किया है | महाकवि और उत्कृष्ट, मध्य एवं जघन्य कवियोंके स्वरूप निर्धारण के साथ उनके लिए विधि तथा निषेध सम्बन्धी नियम प्रतिपादित किये गये हैं । इस प्रकार इस प्रथम परिच्छेद में कवि - शिक्षाका निर्देश किया है । 2 1 द्वितीय परिच्छेद में शब्दालंकारोंके चित्र, वक्रोक्ति, अनुप्रास और यमक ये चार भेद बतलाये हैं । इस परिच्छेद में एक सौ नवासी पद्य हैं और इसमें विस्तारपूर्वक चित्रालंकारका प्रतिपादन किया गया है । इस परिच्छेद में चित्रालंकारके बयालीस भेद बतलाये हैं, १. व्यस्त, २ . समस्त, ३. द्विव्यस्त, ४ द्विः समस्त, ५. व्यस्त समस्त, ६. द्वि: व्यस्त समस्त ७. द्विः समस्तक - सुव्यस्त, ८. एकालापम् ९ प्रभिन्नक, १०. भेद्यभेदक, ११. ओजस्वी, १२. सालंकार, १३. कौतुक, १४. प्रश्नोत्तर १५. पृष्ट प्रश्न, १६. भग्नोत्तर, १७. आद्युत्तर, १८. मध्योत्तर, १९. अन्तोत्तर, २०. अपह्नुत, २१. विषम, २२. वृत्त, २३. नामाख्यातम्, २४. तार्किक, २५. सौत्र, २६. शाब्दिक, २७. शास्त्रार्थ, २८. वर्गोत्तर, २९. वाक्योत्तर, ३०. श्लोकोत्तर, ३१. खण्ड, ३२. पदोत्तर, ३३. सुचक्रक, ३४. पद्म, ३५. काकपद, ३६. गोमूत्र, ३७. सर्वतोभद्र, ३८ गत प्रत्यागत, ३९. वर्द्धमान, ४० हीयमानाक्षर, ४१. श्रृंखला और ४२. नागपाशक । ये शुद्ध चित्रालंकार हैं । इनके अतिरिक्त अर्थ - प्रहेलिकाकी गणना भी चित्रालंकारों में की है । चित्रालंकारके वर्णनकी दृष्टिसे यह परिच्छेद अद्भुत है, प्रत्येक चित्रालंकारका लक्षण और उदाहरण अंकित किया गया है । अन्य अलंकारके ग्रन्थोंमें जहाँ दो-चार ही चित्रालंकार मिलते हैं वहाँ इस ग्रन्थ में बयालीस चित्रालंकारोंका कथन आया है । काव्यशास्त्र में चित्रालंकारकी रमणीयता कम महत्त्व नहीं रखती है । मांगलिक बन्धों www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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