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________________ १२७ -४१] चतुर्थः परिच्छेदः लुप्ता वाक्यगतानुक्तधर्मा श्रोतो मता यथा । चूते यथा पिकाः सर्वे तथा चक्रिणि ते जनाः ॥३८॥ लुप्ता समासगानुक्तधर्मा श्रीतो मैता यथा । पादपीठों नृपास्तस्य भेजिरे देवतामिव ॥३९॥ अत्र इवेन सह नित्यसमासः ॥ लप्ता वाक्यगतानुक्तधर्मा चार्थी मता यथा । क्षीराब्धिध्वनिना तुल्यमादिचक्रिवचो बभौ ॥४०॥ आर्थी समासगा लुप्तानुक्तधर्मा मता यथा । पुरोर्रािशिसुध्वानसदृशं नोनुमो ध्वनिम् ॥४१॥ 'व्याप्त सर्व भू' इत्यादि साधारण धर्मवाची और यथा, वा, इव इत्यादि सादृश्यवाची शब्द, इस प्रकार चारों अवयवोंके रहने के कारण पूर्णोपमा है। वाक्यगता अनुक्तधर्मा श्रौतो लुप्तोपमाका उदाहरण जिस प्रकार आम्रवृक्ष पर कोकिल आश्रित है, उसी प्रकार चक्रवर्ती पर वे सभी मनुष्य आश्रित हैं ॥३८॥ ___ यहाँ साधारणधर्म अनुक्त रहनेके कारा अर्मलु सोपमा है । समापगता अनुक्तधर्मा श्रोती लुप्तोपमाका उदाहरण राजालोग चक्रवर्तीके पैर रखनेसे पवित्र हुई पोठिकाको देवताके समान आदरणीय मानकर पूजते थे ।।३९।। यहाँ 'इव' के साथ नित्यसमास होनेसे समासगता उपमा है । समानधर्मका लोप होनेसे अनुक्तधर्मा लुप्तोपमा है । वाक्यगता अनुक्तधर्मा आर्थों लुप्तोपमाका उदाहरण भरत चक्रवर्तीका वचन क्षीरसागरकी ध्वनिके समान सुशोभित हआ ॥४०॥ यहां वाक्यगता अनुक्तधर्मा आर्थी लुप्तोपमा है। समानधर्मका कथन नहीं किया गया है। समासगता अनुक्तधर्मा आर्थी लुप्तोपमाका उदाहरण समुद्रको गम्भीर ध्वनिके समान ऋषभदेवकी गम्भीर ध्वनि-दिव्यध्वनिको हम बार-बार प्रणाम करते हैं ॥४१॥ १. यथा तथा-ख। २. पादपोलि-ख । ३. तुल्यमादी चक्री वचो बभौ-ख। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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