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________________ -१६७] चतुर्थः परिच्छेदः भावसंभवासंभवाभ्यां वैलक्षण्यम् । भ्रान्तिमदपह्नवसंदेहानामारोपविषयस्य भ्रान्त्यपलापसंशये भेदः। उपमानन्वयोपमेयोपमाः साधर्म्यस्य वाच्यत्वात् सादृश्यमूलत्वेऽपि तुल्ययोगितानिदर्शनदृष्टान्तव्यतिरेकदीपकेभ्यो भिन्नाः । उपमेयोपमाप्रतिवस्तपमयोः साधारणधर्मस्य वाच्यत्वप्रतीयमानत्वाभ्यां भेदः ॥ प्रतिवस्तूपमादृष्टान्तो वस्तुप्रतिवस्तुबिम्बप्रतिबिम्बंभावद्वयेन भिद्यते । दीपकसादृश्यगर्भ अर्थालंकार हैं । निरंगमाला रूपकमें अनेक उपमानोंका एक उपमेयमें आरोपमात्र रहता है; उल्लेखमें एक वस्तुका परिस्थितिभेदसे अनेकधा वर्णन किया जाता है । भ्रान्तिमान् , अपहृ ति और सन्देहमें अन्तर भ्रान्तिमान, अपह्नव और सन्देहालंकारोंमें आरोप विषयको भ्रान्ति, असत्य कथन एवं सन्देहके कारण परस्पर भेद है। उक्त तीनों ही सादृश्यगर्भ अभेदप्रधान आरोपमूलक अर्थालंकार हैं । भ्रान्तिमानमें मिथ्यात्व सादृश्यपर आधारित होता है और सन्देहमें मिथ्यात्वको संशयावस्था सादृश्य में स्वयं उत्पन्न होती है। भ्रान्तिमानके मूल में भ्रान्ति है और सन्देहके मूलमें संशय । अपह नुतिमें प्रकृत-प्रत्यक्षको निषेधवाचक शब्दों द्वारा छिपाया जाता है एवं उसमें अप्रकृतका चमत्कारवेष्टित आरोप या स्थापन किया जाता है। उपमा, अनन्वय और उपमेयोपमामें अन्तर उपमा, अनन्वय और उपमेयोपमा नामक अलंकारोंमें साधर्म्यके वाच्य होनेके कारण यद्यपि सादृश्यमूलकता है, तो भी तुल्ययोगिता, निदर्शना, दृष्टान्त, व्यतिरेक और दीपकालंकारोंमें सादृश्यके प्रतीयमान होने के कारण भिन्नता है। उपमेयोपमा और प्रतिवस्तूपमा अन्तर - उपमेयोपमा और प्रतिवस्तूपमा अलंकारोंमें साधारण धर्मके क्रमशः वाच्य और प्रतीयमान होने के कारण भेद है। प्रतिवस्तूपमा और दृष्टान्तमें परस्पर भेद प्रतिवस्तूपमामें वस्तु तथा प्रतिवस्तुका बिम्बभाव और दृष्टान्त अलंकारमें वस्तुप्रतिवस्तुका प्रतिबिम्ब भाव रहता है। अतः दोनों अलंकारोंमें परस्पर अन्तर है। आशय यह है कि दोनों ही सादृश्यगर्भ गम्यौपम्याश्रयमूलक वर्गके वाक्यार्थगत अर्थालंकार हैं। दोनोंके उपमेय-वाक्य और उपमान-वाक्य निरपेक्ष होते हैं। दृष्टान्तमें बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव होता है, पर प्रतिवस्तूपमामें वस्तु-प्रतिवस्तुभाव । दृष्टान्तमें दो साधर्म्य रहते हैं, जिन्हें भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा कहा जाता है, प्रतिवस्तूपमामें साधर्म्य एक ही रहता है, केवल दो भिन्न शब्दों द्वारा उनका कथन भर किया जाता है । १. भावेन इति-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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