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अलंकारचिन्तामणिः
[ ३३०सारासारासारसमाला सरसीयं सारं कूजत्यत्र वनान्ते सुरकान्ते । सारासारानोरदमालान भसीयं तारं मन्द्रं निस्वनतीतः स्वनसारा ॥३०॥ इह जही वसुधाशिविकासनं, पुरुतपोऽभि सुधाशिविकासनम् । नमिसमः स शितातलमायया वपगमार्थमिलातलमायया ॥३१॥ स नेमोश्वरः वसूधाशिबिकादिकं हित्वा दोक्षार्थ शितातलमाययौ । सा राजते चन्द्रविभोरसाध्वसा राजते कान्तिततिः शरीरे। सा राजते जन्तुगणातिमीमांसा राजतेजोभिरमेयमूर्तिः ॥३२।।
रेजतसमूहभूते । जन्तुगणस्यातिमोमांसा वस्तु विचारणा यस्यास्सकाशात् सा चन्द्रकिरणैः ।।
शुभा विभाति ते विभो महाविभाऽतिदेशक । तनाविभातिमन्दगस्त्रिया विभाति मण्डपे ॥३३।।
गजवदतिशयितर्मन्दगतिभिः सुरकान्तादिभिः स्त्रोभिः शोभमानेऽपि महतो विशिष्टा निर्विकारा भा कान्तिः।
बभौ शचिक्लप्तसुमापहारः, तपःश्रियः कण्ठसमीपतारः। दीक्षावने संसृतितापहारः, 'सुरासुरालीनतमोपहारः ॥३४॥
देवों द्वारा अभिलषित इस वन प्रदेशके सरोवर में प्रशस्त आगमनवालो सारसोंकी पंक्ति शब्द कर रही है और इधर आकाश में गर्जना करती हुई श्रेष्ठ धारासम्पातवाली यह मेघमाला गुरुतर गम्भीर घोष कर रही है ॥३०॥
___उस भगवान् नेमीश्वरने तीर्थंकर नामके सदृश महती तपस्याके कारण देवताओं को आनन्दित करनेवाले पृथ्वीके चतुरन्त मान शिविका का त्याग कर दिया और वे पृथ्वीतलको मायाके निराकरणके लिए शिलातल पर आसीन हुए हैं ॥३१॥
__अष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रभुके रजतनिर्मित शुभ्र शरीरपर मदरहित कान्ति शोभित होती है और उनको जीवसमूहके सम्बन्ध में विचारधारा चन्द्रमाकी ज्योत्स्नाके सदृश अमेय मूर्ति बनकर शोभित होती है ॥३२॥
हे रक्षक, उपदेशक प्रभो ! गजके समान मन्द-मन्द गमन करनेवाली नारियोंसे सुशोभित मण्डपमें आपके शरीरपर शुभ महादीप्ति शोभित है ॥३३॥
दीक्षावनमें इन्द्राणी द्वारा विरचित चतुष्क पूरण ( चौक पूरनेका विधान ) तपोलक्ष्मीके कण्ठस्थित मणिहारके तुल्य है तथा यह चौक संसारके तापको हरण करने
१. सारसारा इत्यादि-ख । २. निस्वनतीति । ३. सु-ख । ४. शरीरी-ख । ५. रजतसमूहभूते बलात् कैलासगिरिसदृशे-क तथा ख । ६. विचारो-ख । ७. महाविभूतिदेशक-ख। ८. खप्रतो मन्द इति नास्ति। ९. महति-ख। १०. शुचिक्लुप्तसुमोपहारस् -ख। ११. सुरासुरालीस तमोपहारः-ख ।
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