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________________ १०५ -२४] तृतीयः परिच्छेदः महीयं ते महीयन्ते महीयन्ते पुरोजिवाः ॥२१॥ इयं मही । ते । मेंही शक्रकृतोत्सववान् अतस्त्वामाश्रिताः ईयन्ते गणैः प्राप्यन्ते महीयन्ते पूज्याश्च ॥ महाभारतीते महाभाऽरतीते । त्वयि द्योततेऽच्छमहा भारती ते ॥२२॥ इतेमहाभा प्राप्तरमोत्सवसदृशी। अरतिमिते वीतरागे। अच्छमहाः निर्मलतेजोगुणाः भरतक्षेत्रे जाता। सुरागोऽङ्गनया मुक्तः। सुरागोऽङ्गसुरागोऽङ्ग ॥२३॥ अङ्गनया सह शोभमानरागस्त्यक्तः। भो पुरो त्वत्तः सुरायाः समागमागश्च । मुक्तं जीवैः । अङ्गमेव सुरागो मेरुय॑स्य । अङ्ग गच्छ । त्वं । भाव्यत्वेन मम चेतो भव। जिनं तं नमामो प्रमादानकायम् । प्रमादानकायं प्रमादानकायम् ॥२४॥ हे पुरुदेव, यह पृथ्वी तुम्हारी है; क्योंकि तुम उत्सवयुक्त-पंचकल्याणकयुक्त हो, अतएव भक्तजन आपके निकट पहुँचते हैं और आपकी पूजा करते हैं ॥२१॥ इयं–मही-पृथ्वी, ते-तुम्हारी, शक्रकृतोत्सव-इन्द्रकृतपंचकल्याणक उत्सव, त्वामाश्रिता:-तुम्हारी है, ईयन्ते - भक्तगण, आपके निकट पहुँचते हैं। हे वीतराग ! आपमें महती शोभा-सम्पन्न, प्रमाणनययुक्त महावाणी शोभित होतो है ॥२२॥ इतेमहाभा-परमोत्सव सदृश, अरतिमिते-वीतरागीप्रभो ! अच्छमहानिर्मल तेजगुणयुक्त, भरतक्षेत्रमें उत्पन्न महावाणी-दिव्यध्वनि । हे पुरुदेव, आपने सुन्दरलावण्यवती नारीके साथ रागको त्याग दिया है तथा आप इन्द्रियजयी होनेसे मदिराके अपराधके त्यागी हैं। हे सुमेरुसदृशकान्तिवालेसुगठित शरीरवाले ! आप मेरे मनमें निवास करें ॥२३॥ अंगनया सह-स्त्रियोंके साथ त्यक्त रागवाले–वीतराग; भो पुरो ! हे पुरुदेव ! सुरायाः-सुरा-मदिराके समागमागं च-अपराध, मुक्तं-रहित, अंगमेव सुरागो मेरुय॑स्य-सुगठित शरीर है, जिनका, ऐसे हे जिन, त्वं-तुम, मेरे मनमें निवास करो। प्रमादरहित और दुःखानुभवरहित-अनन्तसुख युक्त, केवलज्ञानी, निरुपम शरीरवाले-अतिशययुक्त जिनेन्द्रको हम नमस्कार करते हैं ॥२४॥ १. इयं महिते-ख । २. महि-ख । ३. गैः णैः-ख । ४. मीते-ख । ५. समागतमागश्च -क । समागतश्च-ख । Jain Education Inte? Ztional For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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