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________________ -१८१३ ] द्वितीयः परिच्छेदः गगनाङ्गनां गगनस्याङ्गनम् अङ्गणं यस्यास्ताम् । आतमा प्राप्तलक्ष्मीम् 'अन्तो धर्मो मा लक्ष्मीर्यषां ते अन्तमाः मुनयः तेषामातमानां। विशालां यस्य सभां । नातमाना । ना ना पुमान् पुमान् वोप्सायां सर्वः पुरुषः। नत्वा अतमाः अज्ञानरहितो भवेत् । यश्च पुनः नोनो ना ना पुमान् ऊनो न किन्तु सर्वोऽपि जनो लक्ष्मीसमेतो भवति । जितैनाः जितम् एनः पापं येनासो। सः शान्तिजिनः नः अस्मानव्यात् । शृङ्गाग्रद्वयूप्रभागेषु चतुरश्चतुरो लिखेत् । प्रवेशे निर्गमे चापि यानबन्धे प्रियावहे ।।१७९॥ 'घनसारतिरस्कारो कायगन्धः सुधीरधीः । धोरधीसुनुतोऽव्यान्नः सोऽजितः सुरसानघः ॥१८०१॥ अत्याकृत्यमलो वरो भवयमः कुर्वन्मतिं तापसे तत्वाचिन्त्यमतीशिता तवसित ! स्तुत्योरुवाणिः पुनः । जिष्णूतस्फुटकीर्तिवारवशमः श्रेयोऽभिधे मण्डने। धोर स्थापय मां पुरो गुरुवर त्वं वद्ध मानोरुधीः ॥१८१३॥ उदाहरण जिन शान्तिनाथ भगवान्ने समस्त पापोंको नष्ट कर दिया है और जो आकाशमें विद्यमान हैं, जो समवशरण लक्ष्मीको प्राप्त हैं और प्रत्येक व्यक्ति समवशरणमें जाकर जिन्हें नमस्कार करता है और आत्मा अज्ञानान्धकारसे मुक्त हो जाती है तथा प्रत्येक व्यक्ति वहां लक्ष्मीरहित नहीं, अपितु अन्तरंग ज्ञानादि लक्ष्मोसे युक्त हो जाता है । उक्त गुणोंसे विशिष्ट श्री शान्तिनाथ हमारी रक्षा करें ॥१७८३॥ यानबन्धका स्वरूप-- प्रियाको धारण करनेवाले यानबन्धमें शिखरान के दोनों ओरके ऊर्ध्वभागमें चार-चार अक्षरोंको लिखे तथा प्रवेश और निर्गम दोनों ही समय इनकी आवृत्ति करे ॥१७९३॥ उदाहरण जिनके शरीरको गन्ध कपूरको तिरस्कार करनेवाली थी, जिनकी बुद्धि विद्वानोंको प्रेरित करती थी, जो गम्भीर बुद्धि वाले मनुष्योंके द्वारा संस्तुत थे तथा जो उत्तम प्रीतिसे सहित एवं पापसे रहित थे, वे अजितनाथ भगवान् हमारी रक्षा करें ॥१८०३॥ हे धीरवीर गुरुश्रेष्ठ वृषभ जिनेन्द्र ! आप अतिशय पूर्ण आकारके धारक तथा निर्मल-निष्पाप हैं, श्रेष्ठ हैं, संसार-पंचपरिवर्तनरूप संसारको समाप्त करनेवाले हैं, १. अंगनम् -ख । २. अन्तो धर्मो वा लक्ष्मी येषाम् -ख । ३. तेषामतनाम् -क । ४. खप्रती एकमेव पुमान् पदं न तु द्विवारम् । ५. पापः -ख। ६. घनासार....ख । ७. गुणैः शोभनः अनघः निष्पापः प्रथमप्रती पादभागे। ८. कुर्वन्मतितापसे -ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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