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अलंकारचिन्तामणिः
[२११७५३भ्राम्यन्तां त्रीणि च त्रीणि दलेष्वष्टसु कणिकाम् । एकेनैवाष्टकृत्वोऽपि 'पूरयेद्ब्रह्मदीपिके ॥१७५३।। विजित्याननमम्भोज निन्ये जननवैरिणः । 'कक्ष माननयागम्यं सुपावं नन्नमीमितम् ।।१७६३।।
जन्मनः शत्रुभूतस्य यस्याननं स्वशोभया पद्मं जित्वा वनं निनाय तमिति संबन्धः ।
एकसंधौ तु षड्तारमेकमेकं द्विरानयेत् । शृङ्गे शिरसि च ग्रीवां त्रियुक्तां परशौ पठेत् ॥१७७३।। सोऽव्याच्छान्तिजितैना नो नोनोना गगनाङ्गनाम् । नातमा नाऽऽतमा तथ्यां सभां नत्वाऽन्तमातनाम् ॥१७८।।
ब्रह्मदीपिकाका स्वरूप
आठ दलोंमें तीन-तीन अक्षरों को घुमानेसे और कणिकाको एक ही वर्ण द्वारा आठ बार भरनेसे ब्रह्मदोपिका नामक चित्र बनता है ।।१७५३॥
उदाहरण
जनन-उत्पत्तिके शत्रुस्वरूप अर्थात् जन्म, मरण, जरादि रोगोंको नष्ट करनेवाले और अपने मुख-सौन्दर्य से कमल-सौन्दर्यको दूर करनेवाले एवं नय-प्रमाणसे अगम्य-अनन्त गुणोंसे युक्त होने के कारण प्रमाण-नय से अविवेच्य हे सुपार्श्वनाथ भगवन्, मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥१७६३॥
जन्मके शत्रुभूत-जन्म-मरणसे रहित और जिनके मुख-सौन्दर्यने कमलके सौन्दर्यको जीतकर उसे वनमें खदेड़ दिया है, ऐसे सुपार्श्वनाथ तीर्थंकरको नमस्कार करता हूँ।
परशुबन्ध चित्रका स्वरूप
परशुवृत्तमें सन्धिस्थानमें जो एक अक्षर है, उसे छह बार दुहरावे । शृंग और शिरमें विद्यमान एक अक्षरको दो बार दुहरावे । इसो प्रकार तोन अक्ष रोंसे युक्त ग्रीवाको भी दो बार दुहरावे ॥१७७३।।
१. पूरयेद् ब्रह्मबन्धके -क। पूरयेद् ब्रह्मदीपिका -ख । २. कक्षं -क । ३. प्रमाणन
याभ्यामगम्यम् प्रथमप्रती पादभागे। ४. त्रियुक्ता -ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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