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________________ ८१ -१५७ ] द्वितीयः परिच्छेदः अर्धभ्रमः । तति शोभने पुरी महति अक्षयस्थाने 'रतायातं भक्त्या समागतम् । मा मां अस्मदो रूपम् ।। चौरुश्रीशुभदौ नौमि रुचा वृद्धौ प्रपावनौ। श्रीवृद्धीतशिवौ पादौ शुद्धौ तव शशिप्रभ ॥१५७।। भक्तिवश सम्मुख आये हुए मुझ भक्तको सदा रक्षा करें अर्थात् उनकी भक्ति-आराधनासे मैं अपना आत्मविकास करने में समर्थ हो स. ॥१५५१ १५६ ॥ यह अर्द्धभ्रम और गूढ उत्तरार्द्धका उदाहरण है। इसका विवरण निम्न प्रकार है:-- पद्यके चारों चरणोंको नोचे-नीचे फैलाकर लिखे। चारों चरणोंके प्रथम और अन्तिम चार अक्षरोंको मिलानेसे श्लोकका प्रथम पाद बनता है। इन्हीं चारों चरणों के द्वितीय तथा उपान्त्य अक्षर मिलानेसे द्वितीयपाद बन जाता है। इसी तरह तृतीय और चतुर्थपाद भी बना लेने चाहिए। इस प्रक्रियासे यह श्लोक अर्द्धभ्रम कहलाता है। इस पद्यके पूर्वार्धमें जो वर्ण आये हैं, उन्हींमें उत्तरार्द्धके साथ सब वर्ण प्रविष्ट हो जाते हैं। एक प्रकारके समान वर्गों में अनेक प्रकारके समान वर्गों का भी प्रवेश हो सकता है। अतएव इसे गूढपश्चार्द्ध-पश्चार्ध भाग पूर्वार्ध भाग में गूढ-निहित होने से; कहा जाता है। धिया'-बुद्धिसे; श्रितया-सेवनीय होने से; 'इता'-नष्ट हुई; 'आत्ति'मनःपीडा-पीडारहित-अनन्त सुखसम्पन्न । 'उपयान्'-उपगम्यान्-उपगम्य समझकर; 'वरा:-नम्रीभूत इन्द्रादि; 'अपापा'-पापकर्ममलसे रहित; 'यातपाराः'--संसार समुद्रसे पार पा चुके हैं । अथवा समस्त पदार्थों का जिन्हें ज्ञान है । 'ये'-जो; 'श्री:'-केवलज्ञान लक्ष्मी; 'आयातान्'-शरणागत हुए भव्य पुरुषोंको; 'अतन्वत'-विस्तृत करते हैं । ___ 'पुरी महति अक्षयस्थाने'--उत्कृष्ट तथा अविनाशी मोक्षस्थानमें । 'रतायातम्'भक्ति पूर्वक सम्मुख आये हुए; 'मा'-माम् - मेरो-~-मुझ भक्तकी । अर्द्ध भ्रमगृढ-द्वितीयपादका लक्षण-- हे चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ! आपके चरणकमल सुन्दर समवशरणादि लक्ष्मी और निःश्रेयस आदि कल्याणको देनेवाले हैं, कान्तिसे वृद्धिंगत हैं-कान्तिमान् हैं, अत्यन्त पवित्र हैं, अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मोको प्राप्त करनेवाले हैं, प्रक्षालित हैं-इन्द्र, चक्रवर्ती, योगीन्द्र और विविध लक्ष्मीवान् पुरुषोंके द्वारा प्रक्षालित हैं, कल्याणरूप हैं और अत्यन्त शुद्ध हैं । अतः उन चरणोंको मैं नमस्कार करता हूँ ।।१५७।। १. रतायात --ख । २. श्रीश्च शुभं च श्रीशुभे चारुणी च ते श्रीशुभे च चारुश्रीशुभे ते दत्त इति । रुचा दीप्त्या वृद्धी महान्तौ । श्रियं वृणुत इति श्रीवृती श्रीवृतौ च तो धौती च शिवौ च तथोक्तौ । प्रथमप्रती पादभागे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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