SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -१५४ ] द्वितीयः परिच्छेदः ७९ हानहीन क्षयरहित 'धन निविड जिन परमात्मन् अनन्त अमेय अनशन अविनाश निराहार इति वा । ज्ञानस्थानस्थ । केवलज्ञानधामस्थित, आनतनन्दन प्रणतजनवर्द्धन । इन हानहीन जिन अनन्त अनशन ज्ञानस्थानस्थ आनतनन्दन ग्लानं एनश्च नः स्य। द्विव्यैर्ध्वनिसितच्छत्रचामरैर्दुन्दुभिस्वनैः । दिव्यविनिर्मितस्तोत्रश्रमददुरिभिर्जनः ॥१५४॥ गुप्तक्रियामरजः । तृतीयपादे क्रिया गुप्ता। दिव्यै रित्यत्र दिवि आकाशे ऐः सुरादिभिः सह श्रीविहारे गतवान् भवानित्यर्थः। विनिर्मितस्तोत्रेषु श्रमः अभ्यासः स एव ददुरो वाद्यविशेषः एषां तैः । अथवा मुरज एव प्रकारान्तरेण तद्रचना यथा-चतुरः पादानधोऽधो व्यवस्थाप्य प्रथमपादस्य प्रथमाक्षरं तृतीयपादस्य द्वितीयाक्षरेण सह तृतीयपादस्य प्रथमाक्षरं प्रथमपादस्य द्वितीयाक्षरेण सह गृहीत्वा एवं नेतव्यं यावत्परिसमाप्तिः। पुन को नष्ट करने के लिए । 'हानहीनम्'-क्षयरहित, 'धनम्'-निबिड ज्ञान रूप, 'अनन्त'अपरिमेय, 'अनशन'-नाशरहित-निराहार-आहाररहित । 'ज्ञानस्थान'-केवलज्ञानरूप स्थानमें स्थित । 'आनतनन्दन' प्रणत व्यक्तियोंको बढ़ानेवाले । अतएब क्षयरहित, अनन्त चतुष्टयधारी, नाशरहित, केवलज्ञानरूप स्थानमें स्थित, कर्मशत्रुओंके जीतनेवाले जिनेन्द्र हमारे राग-द्वेष और पापकर्मको दूर कीजिए। गुप्तक्रियामरजका उदाहरण हे ऋषभदेव ! आप नम्र मनुष्योंको सांसारिक व्यथाओंको दूर करनेवाले हैं, शोक रहित हैं और आपका हृदय उत्तम है-लोककल्याणकारक भावसे पूर्ण हैं । हे प्रभो ! आप भामण्डल, सिंहासन, अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, मनोहर दिव्यध्वनि, श्वेतच्छत्र, चमर और दुन्दुभिनिनादसे सुशोभित होकर मधुर वाद्यों सहित स्तुतिपाठ करनेवाले देवेन्द्र, विद्याधर एवं चक्रवर्ती आदिके साथ ( समवशरणभूमिमें ) आसीन हुए थे और उन्होंके साथ आपने आकाशविहार किया था।।१५४१।। यह गुप्त क्रिया मुरजबन्ध है। यहाँ तृतीयपादमें 'ऐ:' क्रिया गुप्त है । । इण् गतोसे लङ्लकार मध्यपुरुष एकवचनमें 'ऐ:' क्रियारूप निष्पन्न होता है। 'आकाशमें देवादिके साथ विहार किया' अर्थ है। रचित स्तोत्रोंसे स्तुति करनेवाले और दर्दुर-नगाड़ा आदि वाद्योंसहित । मुरजकी रचना दूसरे प्रकारसे भी होती है। यथा-चार-चार चरणोंको नोचे-नोचे रखकर प्रथमपादके प्रथम अक्षरको तृतीय चरणके द्वितीयाक्षरके साथ; तृतीयपादके प्रथम अक्षरको प्रथमचरणके द्वितीय अक्षरके साथ लेकर समाप्तिपर्यन्त १. घनं निबिडं -क | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy