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अलंकारचिन्तामणि अपना समर्थक बना सकता है।"' भारतीय चिन्तक भी वैदिक युगसे अलंकारका महत्त्व स्वीकार करते चले आ रहे हैं। स्पष्टता और प्रभावोत्पादनके हेतु वाणी में अनायास ही अलंकार आ जाते हैं। विकासकी दृष्टिसे अलंकारक्षेत्रकी तीन स्थितियाँ मानी जा सकती हैं-(१) आदिम स्थिति, (२) विकसित और (३) प्रतिष्ठित स्थिति । आदिम स्थितिमें अध्येताओंको काव्यके प्रभावक धर्मका एक ही रूप ज्ञात था, जिसको वे अलंकार कहते थे। विकसित स्थितिमें अलंकार शब्दमें अर्थ विस्तार हुआ और सौन्दर्य मात्रको अलंकार कहा जाने लगा। प्रतिष्ठित स्थितिमें प्रभावक धर्मकी दूसरी विधाओंको स्वतन्त्रता मिली और वे भी अलंकारके साथ शास्त्रीय अध्ययनका विषय बन गयीं। इस प्रकार अलंकार शास्त्रके अन्तर्गत काव्यके सभी उपकरण और रचनाप्रक्रिया अन्तर्भूत हो गयी। . ऋग्वेदमें उपमा, रूपक, यमक आदिका प्रयोग पाया जाता है। यास्कने 'अलंकरिष्णुम्'का प्रयोग अलंकारके अर्थ में किया है। इन्होंने निघण्टु में उल्लिखित उपमावाचक द्वादश शब्दोंमें-से दशका प्रयोग तृतीय अध्यायमें कर अलंकारशास्त्रकी उपादेयता प्रदर्शित की है।
वैयाकरणों द्वारा यास्क और भरतके बीच अलंकारके कुछ शास्त्रीय शब्द प्रयुक्त मिलते हैं। पाणिनिके समय तक सादृश्यमूलक अलंकार स्वीकृत हो चुके थे। कृत्, तद्धित, समास आदिपर सादृश्यका प्रभाव स्पष्ट है। अतएव यह सिद्ध होता है कि वैयाकरणोंने उपमा आदि अलंकारोंसे प्रभाव ग्रहण कर तुलना सूचक शब्दोंके नियमनका विधान किया है। इस नियमनके अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि अलंकारशास्त्रका बीजारोपण भरत मुनिके पूर्व हो चुका था। यही कारण है कि वैयाकरणोंने अलंकारके प्रभावको ग्रहण किया है। अलंकारशास्त्रमें अलंकारका स्थान
संस्कृतके अलंकारशास्त्रियोंने अलंकारको कटक-कुण्डलवत् बताया है। पर संस्कृतके काव्योंके अध्ययनसे अवगत होता है कि यह सम्बन्ध तन्तुपटवत् है, कटककुण्डलादिवत् नहीं। अलंकार काव्यशरीरके ताने-बाने से पूर्णतः मिला-जुला होता है । उसे अलग नहीं किया जा सकता। इस शब्दार्थ के साथ रासायनिक अन्तर्गठन है; अतः उसे पृथक कर विचार नहीं किया जा सकता।
अलंकारोंकी स्थिति मनोवैज्ञानिक आधारपर प्रतिष्ठित है। ये कविकी वाणीको सौन्दर्य प्रदान करनेके साधन हैं । कवि स्वभावतः सहृदय और कलाकार होता है । उसकी सहृदयता, उसकी भावनाको उद्दीप्त कर देती है; और कविकी कलाप्रियताके कारण उद्दीप्त भावनाएँ स्वतः ही अलंकृत हो जाती हैं । भावनाकी उद्दीप्ति मनके ओज
१. हिन्दी साहित्य कोश, ज्ञानमण्डल, काशी, वि. सं. २०१५, पृ. ७ । २. तितनिषं धर्मसन्तानादपेतमलं करिष्णुमयज्वानम्-निरुक्त ६।१६ ।
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