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________________ प्रस्तावना __'अलंकारचिन्तामणि'के वैशिष्ट्य और महत्त्वपर विचार करनेके पूर्व काव्यमें अलंकारका स्थान और अलंकारशास्त्रकी उपयोगितापर विचार करना आवश्यक है। यत: सभी धर्मानुयायियोंने समान रूपमें अलंकार शास्त्रका प्रणयन किया है। कर्तृवाच्य और करणवाच्य द्वारा अलंकार शब्दको व्युत्पत्ति-"अलंकरोति अलंकारः" और "अलंक्रियतेऽनेनेत्यलंकारः" रूपमें की जाती है। प्रथम व्युत्पत्तिके आधार पर जो भूषित करता है वह अलंकार है। और द्वितीयके अनुसार जिसके द्वारा किसीकी शोभा होती है वह अलंकार है। सामान्यतः दोनों व्युत्पत्तियोंका एक ही अर्थ प्रतीत होता है। पर सूक्ष्म दृष्टिसे अध्ययन करनेपर स्पष्टतः भेद परिलक्षित होगा। कर्तृवाच्यमें अलंकार काव्यका सहज अथवा स्वाभाविक धर्म है । और करणवाच्य में वह साधन मात्र है; सहज अथवा स्वाभाविक नहीं । प्रथममें अलंकार ही अलंकार्य है, दोनोंमें कोई भिन्नता या पृथक्ता नहीं; पर द्वितीय व्युत्पत्तिमें अलंकारसे भिन्न अलंकार्य है। यहाँ अलंकार बाह्य धर्म है, अन्तरंग धर्म नहीं। अलंकारकी इस व्युत्पत्तिभिन्नताके कारण भारतीय साहित्यशास्त्रियोंमें दो वर्ग दिखलाई पड़ते हैं। प्रथम वर्गके आचार्योंने अलंकार और अलंकार्यमें अभेद स्थापित कर अलंकारको ही काव्यका सर्वस्व माना है। इस सिद्धान्तके पोषकोंमें भामह, दण्डी, वामन, जयदेव आदि हैं। द्वितीय वर्गके आचार्योंने अलंकारको काव्यका शोभाकारक धर्म और बाह्यरूपसे उपस्कारक माना है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार हारादि अलंकार रमणीके नैसर्गिक सौन्दर्यकी वृद्धिमें उपकारक होते हैं, उसी प्रकार उपमादि अलंकार काव्यकी रसात्मकताके उत्कर्षक हैं। इस सिद्धान्तका पोषण आनन्दवर्द्धन, मम्मट, विश्वनाथ प्रभृति रसवादी आचार्योने किया है। यहाँ यह स्मरणीय है कि ये रसवादी आचार्य भी अलंकारकी सर्वथा उपेक्षा नहीं करते । ये भी उचित और सन्तुलित रूपमें अलंकार योजनाको महत्त्व देते हैं। निःसन्देह अलंकार वाणीके विभूषण हैं, इनके द्वारा अभिव्यक्तिमें स्पष्टता, भावों में प्रभविष्णुता, प्रेषणीयता तथा भाषामें सौन्दर्यका सम्पादन होता है। अतएव काव्यमें रमणीयता एवं चमत्कारका आधान करनेके हेतु अलंकारोंकी स्थिति आवश्यक है। यूनानी काव्यशास्त्र के अनुसार-"अलंकार उन विधाओंका नाम है, जिनके प्रयोग द्वारा श्रोताओंके मन में वक्ता अपनी इच्छाके अनुकूल भावना जगाकर उनको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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