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________________ -३५ ] द्वितीयः परिच्छेदः 'तेजः सङ क्षोभकारि स्फुटतरवनितापाङ्गबाणैनं विद्धस्तेद्वाग्रज्वप्रबद्धो मनसि वचसि चाङ्गे तदासङ्गदूरः। को मूढः प्राणिचित्तभ्रमणकरमहाश्वभ्रदुःखप्रदायी कस्माज्जातः सदोषः सकलजनततिप्राणहारी च वेदः ॥३३॥ असुरतः ॥ न विद्यते सुष्टु तदभिलाषमात्रं रतं यस्य सः शालासुरात् ओजस्विजातिः। यत्रोपमादयो नानाऽलंकारास्सन्ति च स्फुटम् । कविभिः कथ्यते तद्धि सालंकारसमाह्वयम् ।।३४॥ प्रियकारिणि का देवि त्वमेवे प्रियकारिणी विवेकिनोव काडम्ब (त्वं) सार्वा का त्वमिवाम्बिके ।॥३५॥ उदाहरण तेजको नष्ट करनेवाले नारीके कटाक्ष बाणसे कौन घायल नहीं होता ? नारीको वाणीरूपी रस्सीसे कौन नहीं बन्धनमें पड़ता ? मन, वचन और शरीरसे नारीकी संगतिसे कौन दूर रहता है ? प्राणियों के चित्तको भ्रमित करनेवाला महानरकके समान कष्टप्रद कोन मूर्ख है ? समस्त मानव समूहके प्राणको हरण करनेवाला वेद दोषयुक्त क्यों हुआ ? ॥ ३३ ॥ उत्तर-असुरत:--'पुरुषपक्षे सुरतक्रीडारहितः'-इच्छानुसार सुरत-मैथुन क्रोडासे रहित । वेदपक्षे-'शालासुराज्जातः'-शालासुर या शंखासुर से उत्पन्न । यह ओजस्विजातिका उदाहरण है । सालंकारचित्रका लक्षण जिसमें उपमा, रूपक आदि अनेक अलङ्कारोंको स्पष्ट प्रतीति हो, विद्वान् कवियोंने उसे सालङ्कार चित्र कहा है ॥ ३४ ॥ उदाहरण हे प्रियकारिणी देवि ! तुम कौन हो, तुम हो प्रिय करनेवाली हो। हे अम्ब ! विवेकशालिनीके समान तुम कौन हो ? हे अम्बिके ! तुम्हारे समान सभीकी हितकारिणी कौन है ? ॥ ३५ ॥ १. चेतः कप्रती तथा खप्रतौ । २. तद्वाग्वज्रप्रबद्धो खप्रतो । ३. पुरुषपक्षे सुरतक्रीडारहितः, वेदपक्षे शालासुराज्जातः ( ? ) शंखासुराज्जातः इति बोध्यम् । ४. कागासुरात् इति कप्रतौ, कालासुरात् इति ख । ५. त्वमिव कप्रतो, त्वमिव इति ख। ६. कापि त्वं इति ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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