SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 979
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा हे देव ! महामोह आदि शत्रुओं ने पहले की ही भांति उत्तम राजा को वश में करने की कामना से योगिनी दृष्टिदेवी को नियुक्त किया, किन्तु वह उसे वश में करने में असमर्थ रही, प्रत्युत उत्तम राजा ने ही उसे अपने वश में कर लिया। इतना ही नहीं, अन्त में महामोह आदि समस्त शत्रुओं पर उसने विजय प्राप्त करली । [५७५-५७६] तदनन्तर उत्तम ने धीमे-धीमे समस्त शत्रुवर्ग का नाश कर दिया और निष्कण्टक तथा दिन-प्रतिदिन वर्धमान, प्रताप/समृद्धि सम्पन्न सुन्दर राज्य को प्राप्त कर अपनी सेना का भली प्रकार पालन करते हुए समस्त प्रजा को आह्लादित करने लगा। उसने निर्वत्ति नगरी के मार्ग को नहीं छोड़ा, इधर-उधर नहीं भटका, इसलिये वह लोगों में श्लाघा/प्रशंसा को प्राप्त हुना। लोग बारम्बार उसका गुणगान करने लगे कि, उत्तम राजा धन्य है, कृतकृत्य है। यह महाभाग्यवान् कर्तव्यपालक नरश्रेष्ठ उत्तम पुण्यवान् महात्मा है, जिसने अपने पुण्य-कर्मों के माध्यम से राज्य का बहुत अच्छे ढंग से पालन किया। [५७७-५७६] फिर तो देवता, दानव, मनुष्य, इन्द्र और चक्रवर्ती भी उसकी अनेक प्रकार से स्तुति करने लगे । निष्कंटक मुक्ति-मार्ग की ओर प्रयारण करते हुए उसने सर्वोच्च सन्मान/पूजा प्राप्त की। अनेक सुखों से परिपूर्ण त्रिभूवन प्रसिद्ध अन्तरंग राज्य का पालन करता हुआ, सिद्धान्त गुरु द्वारा प्रदर्शित मार्ग का अनुसरण करता हुआ वह निर्वत्ति नगरी के निकटतर पहुँचने लगा। औदासीन्य मार्ग से चलता हुआ तथा वैराग्य और अभ्यास की सहायता से उपरोक्त सरोवर, रास्तों, पगडण्डियों और नदियों को पार करता हुआ, निरन्तर प्रगति करता हुआ वह आगे बढ़ता रहा । आत्मविकास की सारी प्रक्रियाओं को क्रमशः सम्पन्न करता हुआ वह सर्वदा आनन्दोत्सव से प्रोत-प्रोत निर्वृत्ति नगरी में पहुँच गया और* अन्तरंग राज्य के सर्वोत्तम फल को प्राप्त कर उसको भोगने में समर्थ हुआ। [५८०-५८३] हे देव ! मैंने तो यहाँ तक सुना है कि इस निर्वत्ति नगरी में न मृत्यु है, न वृद्धावस्था है, न पीड़ा है, न शोक है, न उद्वग है, न भय है, न क्षुधा है, न तृषा है और न किसी प्रकार का उपद्रव ही है। वहाँ तो स्वाभाविक, बाधा-पीडारहित, स्वस्वाधीन, अनुपम अनन्त सुख ही सुख है। मोक्ष का सुख वर्णनातीत और तर्करहित है। इस उपमातिग सुख का अनुभव तो किसी सम्पूर्ण ज्ञानी या विशिष्ट महायोगी को ही हो सकता है। [५८४-५८५] ___ इस प्रकार राज्य का पालन करने से उत्तम भूपति निर्वृत्ति नगरी को प्राप्त कर सका और इस नगरी में पहुँचकर वह चिन्तारहित बन गया। तत्पश्चात् उसने उसको राज्य प्रदान करने वाले अपने पिता कर्मपरिणाम महाराजा को पराजित कर, विजयश्री प्राप्त करली। फलस्वरूप उसे ढोक (कर, चौथ) देने की भी * पृष्ठ ६०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy