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________________ प्रस्ताव ६ : उत्तम-राज्य वाला है । यह राजा जानता है कि उसका यह राज्य अनेक अमूल्य रत्नों से समृद्ध है। यह हमारी सेना के प्रत्येक नायक को उसके नाम और गुणों से जानता है और उन गुणों का स्वयं उसके साथ क्या सम्बन्ध है उसे भी जानता है। पुनः हमारी सेना कैसी है ? कितनी है ? सेनापतियों के क्या-क्या गुण हैं ? हमारे कौन से स्थान, ग्राम, नगर, प्रदेश आदि हैं तथा अन्तरंग राज्य में कौन-कौन चोर हैं और कौन शुद्धाचरण वाले हैं ? इसे भी वह जानता है। इस राज्य में किस प्रकार की परि. स्थिति उत्तम है ? इस समस्त वस्तुस्थिति को भी उत्तम भूपति समझता है । इतना ही नहीं, समझी हुई बात को क्रियान्वित करने के लिए भी सर्वदा तत्पर रहता है, जिससे हमारी सेना की बल-शक्ति में वृद्धि होती है और हमारे यश तथा तेजस्विता में भी वृद्धि होती है । वह महामोह आदि हमारे शत्रुओं को पहचानता है तथा उनको दबाकर रखने वाला और उनका नाश करने वाला है। एक राजा के योग्य सभी गुरणों से अलंकृत होने के कारण यह राजा हमारे लिए श्रेष्ठ है और इसका राज्य परमार्थ से हमारा राज्य हो गया है, ऐसा आप समझे। देव ! इस सम्बन्ध में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है । [५४४-५५०] __ सबोध मंत्री के उपरोक्त वचन सुनकर चारित्रधर्म आदि राजाओं के मुखकमल प्रफुल्लित हो गये। फिर उन्होंने आनन्दित होकर आश्चर्यजनक हर्ष-महोत्सव मनाया और परस्पर अभिनन्दन किया तथा बधाईयां बांटने लगे । सभी राजा आनंद रस में लीन होकर गाने लगे अहो ! इस उत्तम राजा के प्रकर्ष-पूर्ण प्रबल राज्य में समग्र तस्कर-समूह के बल का दलन (हनन) कर दिया जायेगा। अल्प समय में ही यह राज्य उत्तम/ श्रेष्ठ प्रकार का हो जायेगा और विशेष रूप से इसका राज्य साधुजनों को अतिशय आनन्द प्रदान करने वाला हो जायेगा। [५५१-५५३] ___ इधर उत्तम-राज्य की स्थापना के समाचार सुनकर महामोह राजा की सेना तो हताश हो गई । 'अरे मर गये !' कहते हुए वे सचमुच अधमरे से हो गये। वे सोचने लगे कि, अब कहाँ जायें? कहाँ भागें? जीवन-रक्षा कैसे करें ? क्या करें ? इन्हीं विचारों में प्राकुल-व्याकुल होकर वे घबराने और दुःखी होने लगे। [५५४-५५५] अपने पिता कर्मपरिणाम महाराजा से राज्य प्राप्त कर उत्तम राजा पहले सिद्धान्त गुरु के पास गया और उनसे आन्तरिक राज्य की गुप्त स्थिति के बारे में पूछा। उत्तम ने कहा-महाराज ! इस अति दुर्गम राज्य में मुझे कैसे प्रवेश करना चाहिये ? * महा प्रचण्ड चोरों का नाश कैसे करूं ? किस नीति से राज्य करने पर यह विशाल राज्य मेरे वश में होगा ? मेरी पौरुष-शक्ति का उपयोग मुझे कहाँ करना चाहिये ? पूज्यवर ! आप विधिवेत्ता हैं, आप सब कुछ उपाय/मार्ग जानते हैं, * पृष्ठ ५६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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