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________________ १६४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा अतः मुझे ऐसा मार्ग बताइये जिससे मेरा राज्य निष्कंटक हो और मुझे अन्य किसी से भी त्रास प्राप्त न हो सके। [५५६-५५६] - उत्तर में सिद्धान्त गुरु ने उत्तम से कहा... वत्स ! तू सचमुच राज्य करने के योग्य है, यह निःसन्देह है । क्योंकि, तुझे मोक्ष-प्राप्ति की प्रबल इच्छा है और उसी के लिये तू धर्म की साधना करता है । तू विरत होकर संसार से दूर होता जा रहा है । तू अर्थ और काम से पराङमुख होता जा रहा है। ये सभी योग्य लक्षण हैं । मोक्ष-प्राप्ति के लिए प्रवृत्त होने वाले को पानुषंगिक रूप से जो यश और सुख प्राप्त होता है उसमें वह मोहित लुब्ध नहीं होता, इसीलिए वे बन्ध के कारण नहीं बनते । मैं तुझे भी ऐसा ही देख रहा हूँ। इस संसार का सभी प्रपंच तुझे स्पष्टतः दिखाई दे रहा है। उसके रहस्य और विषमता को तूने समझ लिया है, इसीलिये पिता द्वारा सौंपे गये राज्य को भी तूने पहचान लिया है । हे नरोत्तम ! इस राज्य में प्रवेश करने की विधि बतलाता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। [५६१-५६४] राज्य-प्रवेश का उपाय राजन् ! अन्तरंग राज्य में प्रवेश करने से पहले गुरु महाराज से पूछना । गुरु महाराज जो उपदेश दें/मार्ग बतावें उस पर सम्यक् प्रकार से प्राचरण करना । वेद मंत्रों से मंत्रित अग्नि की जिस प्रकार अग्निहोत्री रक्षा करता है उसी प्रकार गुरु महाराज की सेवा/उपासना करना। धर्मशास्त्रों का मननपूर्वक अभ्यास कर तलस्पर्शी ज्ञाता बनना। उनमें वरिणत सिद्धान्तों/रहस्यों का गहन-चिन्तन करना और उन्हें समझकर हृदय को उन पर दृढ़ करना। धर्मशास्त्रों में बताई हुई क्रियाओं अनुष्ठानों का पालन करना । संत महात्माओं की पर्युपासना/सेवा करना। दुर्जन मनुष्यों से सर्वदा दूर रहना और उनके परिचय का त्याग करना । १. सर्व प्राणी अपने समान ही है, ऐसा समझ कर उनकी रक्षा करना, उन्हें प्राणदान देना, २. सर्व प्राणियों को हितकारी, मधुर, अवसर योग्य और सोच-समझ कर सत्य वचन बोलना, ३. दूसरे के धन का तिल मात्र भी बिना स्वामी की आज्ञा के नहीं लेना, ४. समस्त स्त्रीवर्ग के साथ संभाषण, स्मरण, कल्पना, प्रार्थना, वार्तालाप आदि नहीं करना, उनके सामने एकटक नहीं देखना और ५. बाह्य तथा अन्तरंग सभी प्रकार के परिग्रह का त्याग करना। आत्म-संयम में विशेष उपकारी साधुवेष को धारण करना। नव कोटि विशुद्ध पाहार, उपधि, शैय्या आदि से अपने शरीर का निर्वाह करना और ग्राम-नगर आदि में नि:स्पृह होकर अप्रतिबद्ध विहार करना । तंद्रा, ऊंघ, निराशा, आलस्य और शोक को निकट आने का अवसर भी नहीं देना । सुकोमल स्पर्श पर मूछित न होना, स्वादिष्ट रस का लोलुप न बनना, सुगन्धित पदार्थों पर मोहित न होना, कमनीय रूप सौन्दर्य पर आसक्त न होना और मधुरध्वनि पर लुब्ध न बनना । कर्कश शब्दों के प्रति उद्वेग न करना, वीभत्स रूप को देखकर जुगुप्सा न करना, अमनोज्ञ रस को देख कर द्वष न करना, दुर्गन्धित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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