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१२. अधम- राज्य : योगिनी दृष्टिदेवी
वितर्क अपने स्वामी अप्रबुद्ध से बोला - हे देव । द्वितीय वर्ष के प्रारम्भ में भी उसी प्रकार पटह (ढोल) बजाकर उद्घोषणा की गई कि अरे लोगों ! इस वर्ष अधम का राज्य हुआ है, अतः खाओ, पिओ और मौज करो। इस बार भी मोह राजा और चारित्रधर्मराज की सेनाओं में प्रथम वर्ष की भांति अधम राजा कैसा होगा, इस सम्बन्ध में विचार-विमर्श हुआ । मोह राजा की राज्यसभा में महामोहराज के मंत्री विषयाभिलाष ने अधमराजा के स्वरूप और गुणों का जो विस्तार से वर्णन किया, उसे मैं बतलाता हूँ । [४३८-४४०]
मंत्री विषयाभिलाष कहने लगा- - देखो, अधम के पिता ने इस अधम राजा को कैसा बनाया है ? इस अधम का स्वरूप विस्तार से बतलाता हूँ :
प्रथम का स्वरूप
यह अधम इस लोक ( भव) में गाढासक्त है । सर्व प्रकार के आनन्द भोगने का इच्छुक है । इस भव को ही सब प्रकार से पूर्ण मानता है । परलोक से विमुख है । धर्म और मोक्ष के प्रति इसको द्वेष है । अर्थ और काम पुरुषार्थ में तल्लीन है । शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में प्रत्यन्त लुब्ध है । तप, दया, दान, शील, ब्रह्मचर्य आदि गुणों की हंसी उड़ाने वाला विदूषक है । अतः वह हमारा तो अत्यधिक प्रिय ही है । उसे भी हमारे प्रति प्रेम है । वह हमारा श्राज्ञापालक है । वह चारित्रधर्मराज और उसकी सेना का द्वेषी है, उनका एकान्तत: शत्रु है । उसे अभी तक अपने स्वराज्य का ज्ञान ही नहीं है । अपने बल, वीर्य और स्वरूप को भी वह नहीं जानता है । हम वास्तव में चोर - लुटेरे हैं, यह भी वह नहीं जानता । इसलिये मुझे लगता है कि, हे देव ! इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि अधम का राज्य वस्तुतः हमारे हित के लिये ही निर्मित हुआ है । हमें केवल इतना ध्यान रखना है कि वह किसी भी प्रकार अपने राज्य में प्रवेश न कर सके; क्योंकि एक बार यदि यह अपने राज्य में प्रविष्ट हो गया तो हमारी चेष्टाओं को जानकर हमें पहचान लेगा । इस दुरात्मा श्रधम में तनिक वीर्य, पराक्रम, शक्ति है, इसलिये इसे राज्य से बाहर ही रखना चाहिये । इसका राज्य में प्रवेश हमारे लिये हितकर नहीं है । [४४१-४४७]
महामोह महाराजा ने पूछा- प्रार्य ! दुरात्मा प्रधम * अपने राज्य में प्रवेश न कर सके और बाहर ही बाहर रहे इसके लिये कोई मार्ग हो तो विस्तारपूर्वक बतलाश्रो ।
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