SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 961
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ११. निकृष्ट-राज्य वितर्क ने मनुष्य गति में छः वर्ष बिताये और वहाँ से लौटकर अप्रबद्ध को उन छः प्रकार के राज्यों का अपना अनुभव सुनाया । वह बोला देव ! यहाँ से प्रस्थान कर मैंने उनके अन्तरंग राज्य में प्रवेश किया। उस समय नगर-नगर, ग्राम-ग्राम में मनुष्यभव-आवेदन नामक पटह बजाकर घोषणा की जा रही थी। उद्घोषक कह रहा था-पूर्व-परम्परा के अनुसार यहाँ प्रथम राजा निकृष्ट का राज्य प्रारम्भ हो गया है । हे लोगों ! आप काम करें, खायें-पियें और मौज करें। [३७६] __ इस उद्घोषणा को सुनकर राजमण्डल विचार में पड़ गया कि यह नया राजा न जाने कैसा होगा ? सारे राज्य में खलबली मच गयी । मनुष्य-जन्म-प्रदेश के अनेक छोटे राजा, विद्वान् और कुटुम्बीजन चिन्तित एवं क्षुब्ध होकर अपने-अपने स्थानों पर परस्पर मन्त्रणा करने लगे कि, न जाने यह नया निकृष्ट राजा कैसा होगा? [३७७-३७६] निकृष्ट का स्वरूप पूर्वोक्त चोर-लुटेरे भी संगठित होकर अपने सरदार महामोह की संसद में पहुँचे और उनके साथ विचार-विमर्श करने लगे। उस समय विषयाभिलाष मन्त्री ने महामोह नरेन्द्र के समक्ष अपने विचार प्रकट करते हुए कहा यह जो नया निकृष्ट नामक राजा बना है, यह कैसा होगा ? क्या करेगा ? * यह हम सब नहीं जानते, इसलिये हम सब चिन्तातुर हो गये हैं। परन्तु, देव ! यह हमारा विषाद अकारण है, निर्हेतुक है। हम व्यर्थ ही अाकुल-व्याकुल हो गये हैं । मेरे इस प्रकार कहने का प्रयोजन/कारण यह है कि महाराजा कर्मपरिणाम ने इस निकृष्ट को बनाया ही ऐसा है कि वह हमारा उत्पीड़न करने में कभी समर्थ नहीं हो सकता, अपितु वह तो सदा हमारे वश में रहने के लिए ही निर्मित हुया है। हमारा ही नहीं, हमारे सैनिकों का भी वह आज्ञापालक/किंकर बनकर कार्य करेगा । हम यह मानकर चलें कि कर्मपरिणाम ने इस राज्य पर जो इसकी नियुक्ति की है, उसके इस राज्य के वास्तविक राजा तो हम ही रहेंगे। अतः अब हमारा यह राज्य निष्कंटक हो गया है। फलतः हमें आनन्द मनाना चाहिये। विषाद करने की क्या आवश्यकता है ? [३८०-३८६] * पृष्ठ ५८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy