SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 959
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपमिति भव-प्रपंच कथा ग्राम, खाने आदि अपने अधीन कर लेता है, स्वेच्छानुसार विलास करता है* और संसारी जीव को एकदम अकिंचित्कर / निर्माल्य कर देता है । वह महामोह संसारी जीव के महत्तम बल को नहीं के समान निर्वीर्य बना देता है और संसारी जीव के महाराज्य का स्वयं को ही प्रभु समझता है । १७८ किसी समय यदि संसारी जीव को मालूम पड़ता है कि उसका राज्य महामोह ने दबा रखा है । जब उसे अपने बल-वीर्य, संमृद्धि एवं अपने स्वरूप का भान होता है, तब वह महामोह से लड़ने को उद्यत होता है, अपने बल और कोष की वृद्धि करता है । युद्ध में कभी संसारी जीव विजयी होता है और कभी महामोह विजयी होता है । जितना - जितना संसारी जीव महामोह पर विजय प्राप्त करता है उतना - उतना वह सुख प्राप्त करता है और जितने अंश में वह महामोह से हारता है, उतना ही वह दुःखी होता है । हे भद्र ! धीरे-धीरे संग्राम का अभ्यास करते हुए जब वह अपने भीतर रहे हुए अतुलनीय बलवीर्य को प्रकट करने में समर्थ होता है तब महामोह ग्रादि शत्रुत्रों को से नष्ट कर निष्कंटक राज्य प्राप्त करता है और अपने प्रशस्त महाराज्य को मूल प्राप्त कर, चित्तवृत्ति का त्याग कर निरन्तर आनन्द सुख और स्वाभाविक सुख को प्राप्त होता है । इसीलिये अंतरंग राज्य ही उसके सुख तथा दुःख का कारण है । यह नि:संदेह है कि यदि अन्तरंग राज्य का पालन समुचित पद्धति से किया जाय तो वह संसारी जीव के सुख का कारण होता है, अन्यथा वही उसके दुःख का कारण हो जाता है । है भद्र ! सामान्य अन्तरंग राज्य जो संसारी जीव के सुख-दुःख का कारण है उसकी संघटना / रचना इसी प्रकार की कही गई है । [३६८-३७२] प्रबुद्ध - भगवन् ! वर्तमान में संसारी जीव का सुराज्य है या कुराज्य ? सिद्धान्त-भद्र ! अभी तो संसारी जीव का कुराज्य ही है । अभी तो वह यह भी नहीं जानता कि वह इतने बड़े राज्य का स्वामी है। न तो उसे अपने बल, कोष और समृद्धि का पता है और न वह अपने स्वरूप को ही जानता है । अभी तो वह संसारी जीव बाह्य प्रदेश में ही भटक रहा है, दुःख- समुद्र में डूबा हुआ है और मैथुन एवं सागर मित्र उसे बराबर भटका रहे हैं । बेचारे की चारित्रधर्मराज अधीनस्थ सेना भी महामोह राजा आदि द्वारा घिरी हुई है और वह अपनी शक्ति का प्रयोग न कर सके ऐसी स्थिति में पड़ा हुआ है । अप्रबुद्ध - सामान्य अन्तरंग राज्य संसारी जीव के सुख-दुःख का कारण है, यह तो समझ में प्राया किन्तु विशेष रूप से देखने पर यह अन्तरंग राज्य अनेक रूपों * पृष्ठ ५८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy