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प्रस्ताव ६ : सुख-दुःख का कारण : अन्तरंग राज्य
सुख-दुःख का हेतु अन्तरंग राज्य
अप्रबुद्ध- भगवन् ! इस संसार में प्राणी को क्या प्रिय है और क्या अप्रिय है ?
सिद्धान्त –भद्र ! प्राणी को सुख अति प्रिय और दुःख अप्रिय है। इसलिये सभी प्राणी सुख प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते हैं और दुःख से दूर भागते हैं ।
अप्रबुद्ध-फिर इस सुख और दुःख का कारण क्या है ?
सिद्धान्त-सुख का कारण राज्य है और दुःख का कारण भी राज्य ही है।
अप्रबुद्ध - राज्य सुख और दुःख दोनों का कारण कैसे हो सकता है ? इसमें तो स्पष्टतः विरोध प्रतीत होता है।
सिद्धान्त-वस्तुतः इसमें विरोध नहीं है, क्योंकि यदि राज्य का पालन भली प्रकार किया जाय तो वह सुख का कारण है और यदि उसका पालन गलत ढंग से किया जाय तो वह दुःख का कारण है।
अप्रबुद्ध --- क्या सुख-दुःख का एकमात्र कारण राज्य ही है ? अन्य कोई कारण नहीं है ?
सिद्धान्त- हाँ, भाई ! एकमात्र राज्य ही सुख-दुःख का कारण है, अन्य कुछ नहीं।
अप्रबुद्ध -- महाराज ! * यह बात तो प्रत्यक्ष विरुद्ध है। संसार में बहुत थोड़े प्राणियों को राज्य प्राप्त होता है, किन्तु सुख-दुःख का अनुभव तो सभी जीव करते हैं, ऐसा दृष्टिगोचर होता है।
सिद्धान्त - भद्र ! सुख-दुःख का कारण बाह्य राज्य नहीं, अन्तरंग राज्य है । संसार के सभी जीवों को वह अन्तरंग राज्य अवश्य प्राप्त होता है। यदि जीव अन्तरंग राज्य का पालन उचित पद्धति से करता है तो सुख प्राप्त करता है और यदि दुष्पालन करता है तो दुःख का अनुभव करता है । अतएव इसमें किसी प्रकार का प्रत्यक्ष विरोध नहीं है।
अप्रबुद्ध-भगवन् ! यह अन्तरंग राज्य एकरूप वाला/एक समान है या भिन्न-भिन्न प्रकार का है ?
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