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________________ १७४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा उत्तमसूरि के उत्तर को सुनकर हरि राजा मेरे विषय की चिन्ता से मुक्त हुआ। इसके पश्चात् उन्होंने प्राचार्य से एक बहुत ही अर्थसूचक प्रश्न पूछा। [३५७ ] ___ महाराज ! आपने अभी बतलाया था कि धनशेखर ने ऐसा जो भयंकर दूषित काम किया और पापाचरण किया वह उसने अपने पापी सागर और मैथुन मित्रों की प्रेरणा से किया। वैसे धनशेखर स्वरूप (अन्तरंग दृष्टि) से बहुत अच्छा है, भद्रिक है। फलतः मेरे मन में यह जानने की जिज्ञासा हो रही है कि यदि प्राणी स्वरूप से निर्मल है तब वह दूसरों के दोष से दुष्ट कैसे बन सकता है ? सूरि महाराज ने उत्तर में कहा- नरेश ! प्राणी स्वयं निर्मल होने पर भी दूसरों के दोषों से भी दुष्ट बन जाता है। इसका कारण सुनो-लोक दो प्रकार का है-एक अन्तरंग और दूसरा बाह्य । बहिरंग लोक के दोष तो प्राणी को लग भी सकते हैं और नहीं भी लग सकते, किन्तु अन्तरंग लोक के दोष तो अवश्य ही लगते हैं । हे राजेन्द्र ! अन्तरंग लोक के दोष कैसे होते हैं और किस प्रकार लगते हैं ? इस सम्बन्ध में मैं तुम्हें एक कथा सुनाता हूँ जिससे तुम सब बात अच्छी तरह से समझ सकोगे। में जो कथा सुना रहा हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो। [३५८] ___ कथा सुनने से अपनी शंका का समाधान होगा और आचार्य श्री की वाणी सुनने का लाभ भी प्राप्त होगा, यह सोचकर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ और प्राचार्य श्री को कथा सुनाने की प्रार्थना की। १०. सुख-दुःख का कारण : अन्तरंग राज्य उत्तमसूरि हरि राजा को कथा सुनाने लगे- राजन् । यह तो तुम्हें ज्ञात ही है कि कर्मपरिणाम महाराजा और कालपरिणति के अनेक पुत्र हैं, पर उन्हें किसी की दृष्टि न लग जाये इसलिये अविवेक आदि मंत्रियों ने उन्हें भुवन में छुपा कर गोपनीय रूप से रखा है और संसार में यह बात फैला रखी है कि वे बांझ हैं। इन महाराजा के पास एक सिद्धान्त नामक परम सत्पुरुष है जो विशुद्ध सत्यवादी है एवं समस्त प्राणी समूह के लिए हितकारी है । यह सभी प्राणियों के भाव और स्वभावों को जानने वाला, कर्मपरिणाम एवं कालपरिणति के समस्त गोपनीय रहस्यस्थानों तथा भेदों का सूक्ष्म ज्ञाता है । सिद्धान्त का विनय सम्पन्न शिष्य अप्रबुद्ध है। एक दिन उनमें निम्न वार्तालाप हुआ : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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