SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 954
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्ताव ६ : उत्तमसूरि १७३ ब्रह्मरति और मैथुन में स्वभाव से ही शत्रुता है, अतः ये दोनों कभी एक साथ नहीं रह सकते। ऐसी सर्वगुणसम्पन्न योगीवन्द्य यह राजकन्या सतत अानन्दकेलि में रमण करती रहती है । [३४४-३४६] हे राजन् ! दूसरी मुक्तता नामक कन्या भी निःसन्देह सर्व गुण सम्पन्न और सर्व दोषों का नाश करने वाली है, अतः स्वभाव से ही धनशेखर के महापापी इष्ट मित्र सागर के साथ उसका जन्मजात विरोध है। इन दोनों के बीच सर्वदा लड़ाई चलती रहती है । परिणामस्वरूप यह पापात्मा सागर ज्यों ही शुद्ध धर्म से परिपूर्ण इस मुक्तता कन्या को देखता है त्यों ही वह उसे दूर से ही देखकर तुरन्त भाग खड़ा होता है । [३४७-३४६] अतएव जब ये दोनों कन्यायें तेरे मित्र धनशेखर को प्राप्त होंगी तब उसका इन दोनों पापी मित्रों से निःसन्देह छूटकारा होगा। जब इन दोनों कन्याओं के साथ धनशेखर का लग्न होगा और वह उनके साथ अत्यन्त प्रानन्द पूर्व क्रीड़ा करेगा, सुख भोगेगा, लहर करेगा तब वह अनन्त आनन्द को प्राप्त करने में समर्थ होगा। [३५०-३५१] हरि राजा को यह जानकर कि कभी न कभी तो धनशेखर को आनन्द प्राप्त होगा ही, बहुत प्रसन्न हुआ। पर, उन कन्याओं की प्राप्ति उसे कैसे होगी ? यह बात वह नहीं समझ सका। इसलिये उसने हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर अत्यन्त भावपूर्वक नमस्कार कर आचार्य प्रवर से पुनः पूछा-भगवन् ! आपने सर्व गुणसम्पन्न जिन दो कन्याओं के बारे में अभी बतलाया, वे पापी-मित्रों का नाश करने वाली दोनों कन्यायें धनशेखर को कैसे प्राप्त होंगी? यह भी बतलाने की कृपा करें। [३५२-३५३] विनीत राजा का प्रश्न सुनकर उत्तमसूरि ने कहा-नरेन्द्र ! तेरे जैसे बुद्धिमान व्यक्ति को तो अपने शौर्य से त्रिभूवन को वश में रखने वाले अन्तरंग के महाराजा कर्मपरिणाम के बारे में मालूम होगा ही। यदि भविष्य में कभी ये महा पराक्रमी महाराजा* अपनी कालपरिणति महारानी के साथ तेरे मित्र धनशेखर पर प्रसन्न हो जायें तो वे अपने अधीनस्थ शुभ्रचित्त नगर के राजा सदाशय को कहकर उनसे उनकी दोनों पुत्रियों को तेरे मित्र को दिला सकते हैं। भविष्य में किसी समय ऐसा हो सकेगा। अर्थात् कर्मपरिणाम राजा के प्रसन्न होने पर भविष्य में कभी तेरे मित्र को ये दोनों कन्यायें प्राप्त होंगी। इन दोनों राजकन्याओं के प्राप्त होने पर तेरा मित्र परमसुख को प्राप्त करेगा और वह सर्व गुण सम्पन्न बनेगा । राजन् ! कन्याओं को प्राप्त करने का अन्य कोई उपाय नहीं है, अतः अब इस सम्बन्ध में आप आकुलता का, त्याग करें। [३५४-३५६] * पृष्ठ ५८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy