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________________ ७. समुद्र से राज्य-सिंहासन [हरिकुमार निर्दोष प्रानन्द-विलास करता हआ, समय-समय पर मेरी मित्रता का लाभ लेता हुअा अानन्दपूर्वक अपना समय व्यतीत कर रहा था। मैं सागर के प्रताप से रत्न इकट्ठे कर रहा था और मैथन के असर से स्त्रियों में भटक रहा था। सागर का मुझ पर अधिक प्रभाव था, पर विलास में मुझे आनन्द प्राता था। लोभवश धन नहीं खर्च करता था जिससे नीच स्त्रियों के प्रसंग में पड़कर अपयश का भागी बन रहा था। कुमार में मेरी जैसी विलासप्रियता या लोभ नहीं था।] हरिकुमार की ख्याति : नीलकण्ठ की दुश्चिन्ता हरिकमार में सब प्रकार की सादगी और स्नेहवृत्ति होने से महाराजा नीलकण्ठ का सम्पूर्ण राज्यवर्ग, राजा का अन्त:पुर और पूरा राज्य उस पर मुग्ध था । उसके गुणों से सभी प्रसन्न थे और सभी उसके प्रति प्रेम रखते थे। हरिकुमार जैसेजैसे उम्र में बढ़ रहा था वैसे-वैसे उसके राज्यकोष और राज्यवैभव में भी वृद्धि हो रही थी। यह बात प्रसिद्ध ही है कि "जनता के अनुराग से संपत्ति में वृद्धि होती है।'* जब वह हरिकुमार मयूरमञ्जरी के साथ हाथी पर सवार होकर, मित्रों और राजपुरुषों से परिवेष्टित होकर, श्वेत छत्र से शोभित होकर घूमने निकलता तो उनकी शोभा इन्द्र-इन्द्राणी जैसी लगती । नगर-निवासी उसकी तरफ एक-टक देखते रहते और उसे वास्तव में भाग्यशाली मानते । [२२६-२३२] कुमार पर जनता के अतिशय अनुराग को देखकर महाराजा नीलकण्ठ को द्वेष होने लगा। वे सोचने लगे कि कुमार के मन में अवश्य ही मेरे प्रति दूषित भाव होंगे।' ऐसे कलुषित विचारों से महाराजा का मन मलिन हो गया । वे सोचने लगेमैं वृद्ध हो गया हूँ, पुत्रहीन हूँ, मेरे पास इस समय मेरा कोई पक्षधर नहीं है और इस कुमार ने मेरे सम्पूर्ण राज्य कर्मचारियों और सम्बन्धियों को अपने वश में कर लिया है । संक्षेप में मेरा समग्र राज्यतन्त्र इसने संभाल लिया है और मेरे मंत्री भी उसके प्रति आकर्षित हैं । इस प्रकार वर्धित प्रताप और महाबली यह कुमार कभी मेरे सम्पूर्ण राज्य को भी हड़प सकता है, इसमें मुझे तनिक भी संदेह नहीं है । अतः अब इसके सम्बन्ध में मुझे अनदेखी नहीं करनी चाहिये । नीति एवं व्यवहार कुशल मनुष्य कह गये हैं कि, "प्राधा राज्य हड़प करने वाले नौकर को यदि मारा न जाय तो एक दिन स्वयं को उसके हाथ से मरना पड़ता है।" [२३३-२३६] * पृष्ठ ५७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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