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________________ प्रस्ताव ६ : मैथुन और यौवन के साथ मैत्री १५४ स्त्रियों को ढूढ-ढूढ कर उनके साथ मैथुन सेवन करने लगा। इस प्रकार के व्यवहार से मैंने अपनी मर्यादा का त्याग कर दिया और निर्लज्ज होकर ढेढणी और भंगिन जैसी अोछी स्त्रियों में भी संगम की कामना से भटकने लगा। मुझ से मैथुन सेवन किये बिना रहा नहीं जाता और उसके लिए पैसे भी खर्च नहीं करने थे, अत: मैं जघन्य कुकर्म में प्रवृत्त हो गया। हे भद्रे ! इस प्रकार अग्राह्य और नीच स्त्रियों में भटकने से मेरी बहत निन्दा हुई और उन स्त्रियों के सम्बन्धियों ने मेरा बहुत अपमान किया, मुझे बहुत मारा और समाज में मेरी बहुत अपकीर्ति हुई । मैं हरिकुमार का मित्र था और उस समय तक मेरा अन्तरंग मित्र पुण्योदय मेरे साथ था इसलिये उन स्त्रियों के सम्बन्धियों ने मुझे जान से नहीं मारा और न मुझे दण्ड ही दिलाया। परन्तु, इस मैथुन मित्र के प्रसंग से मैं समाज में अत्यन्त तिरस्कृत और विवेकवान शिष्टजनों का निन्दापात्र बना । फिर भी हे सुलोचने ! मैं मूढचित्त यह मानता रहा कि यह मैथुन मित्र मुझे महान सुख देने वाला है, निष्कामवृत्ति से प्रेम रखने वाला है और आनन्द की मस्ती में झलाने वाला है। उस समय मुझे निश्चित रूप से यही लगता था कि इस संसार में जिसे मैथुन नहीं मिला उसका जीवन ही क्या है ! अथवा उसका जीना और नहीं जीना बराबर है । जीवित भी वह मुर्दा ही है। उस समय मुझे मैथुन पर इतना अधिक प्रेम था और मैं उस पर इतना आसक्त था कि मुझे वह गुरगों का पुञ्ज ही दिखाई देता था, उसमें एक भी दोष दिखाई नहीं पड़ता था। ऐसी विपरीत बुद्धि के कारण मुझे मैथुन पर बहुत प्रेम था। वह मेरा अत्यन्त प्यारा मित्र था। फिर भी उससे भी अत्यधिक मेरा प्रिय मित्र तो सागर ही था। . [२१७-२२६] हे पापरहित अगहीतसंकेता ! उस समय में यही समझ रहा था कि सागर मित्र की कृपा से ही देवों को भी अप्राप्य माणक रत्नों के ढेर मुझ गरीब को मिले हैं, अतः वह धन्यवाद का पात्र है । सागर और मैथुन मुझे ऐसी कई दुःखपूर्ण पीड़ाएं पहुँचाते फिर भी मैं मूर्खता के कारण उनमें आनन्द मानता था और यह समझ कर कि मेरे जैसा दूसरा कोई नहीं है। मैं रत्नद्वीप में ही रहता रहा । [२२७-२२८] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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