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________________ १५८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा हे भद्रे ! यौवन की बात सुनकर मैं मोह-विह्वल हो गया, मन में उनके प्रति प्रेम उत्पन्न हुआ और मैंने दोनों को अपने विशेष मित्रों के रूप में स्वीकार कर लिया तथा उन्हें भी सूचित कर दिया कि अब मैं उनके प्रति सच्ची प्रीति रखगा। मेरे अन्तरंग राज्य के स्वान्त नामक भवन के स्थान पर उसके अधिपति के रूप में मैंने मैथुन मित्र की स्थापना कर उसे आश्रय दिया और स्वान्त नामक महल के पास ही गात्र नामक (शरीर) महल के स्थान पर यौवन मित्र को स्वामी के रूप में नियुक्त किया। [२०७-२०६] यौवन और मैथुन का प्रभाव ? कुकर्मों में प्रवृत्ति । उसके पश्चात् ये दोनों मेरे शरीर के भीतर अपने-अपने स्थान पर रहकर, मेरे द्वारा लालित-पालित होकर अपने शौर्य का मुझ पर प्रभाव दिखाने लगे। हे भद्रे ! यौवन मुझ में क्रीड़ा, विलास, प्रहसन, हास्य, चुटकले और वीरता आदि मन को हरण करने वाले अनेक गुण उत्पन्न करने लगा । हे भद्रे ! मैथुन ने मेरे पर ऐसा प्रभाव डाला कि मैं सैकड़ों स्त्रियों के साथ भोग-विलास करू तब भी मेरा मन नहीं भरे। जैसे दावानल में कितनी ही लकड़ी डालने पर भी उसका पेट नहीं भरता वैसे ही कितनी ही स्त्रियों के साथ मैथुन सेवन करने पर भी मुझे तृप्ति नहीं होती ।* फिर मैथुन मित्र ने मुझे नगर की सब से सुन्दर वेश्या के साथ भोग भोगने के लिये प्रेरित किया, पर मेरा पुराना अन्तरंग मित्र सागर जो धन का लोभी था, मुझे समझाता रहा कि ऐसा नहीं करना, क्योंकि ऐसा करने से धन की हानि होगी और एकत्रित पूजी विनाश को प्राप्त होगी। इस प्रकार एक तरफ मैथुन मुझे विलास करने की आज्ञा देता तो दूसरी तरफ सागर मुझे धन का लोभ दिखला कर रोकता। मैं बहुत नाजुक स्थिति में आ गया, “एक तरफ नदी तो दूसरी तरफ व्याघ्र" वाली मेरी दशा हो गयी। मैं घबरा गया। हे भद्रे ! सागर मित्र पर मुझे अधिक प्रम था, वह मुझे सब से प्यारा था, उसके प्रति मेरा अधिक आकर्षण था, पर साथ ही मैथुन की आज्ञा का उल्लंघन करने में भी मैं असमर्थ था । अन्त में दोनों के दबाव में आकर मैं एक अप्रत्याशित दारुण कर्म कर बैठा, क्योंकि मेरी इच्छा दोनों की आज्ञा मानने की थी। [२१०-२१६] दोनों मित्रों को प्रसन्न रखने के लिए मैंने सोचा कि कुछ ऐसा उपाय करना चाहिये कि जिससे मेरी मैथुन-सेवन की इच्छा भी तृप्त हो और धन भी खर्च न करना पड़े। इसके लिए मैं बाल-विधवा, परित्यक्ता, प्रोषितभर्तृका (जिसका पति परदेश गया हो), भक्त-स्त्रियों या बिना पैसा लिए अथवा नाम मात्र का पैसा लेकर वश में होने वाली स्त्रियों के साथ भोग भोगने का विचार करने लगा। सागर मित्र के भय से और मैथुन की प्राज्ञा मानने के लिए मैंने न तो कार्य-अकार्य का विचार किया और न लोकलाज से ही डरा तथा बिलकुल पागल की तरह ऐसी * पृष्ठ ५७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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