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________________ १४६ उपमिति-भव-प्रपंच कथा पदार्थों के प्रयोग से, सूक्ष्म वायु भारी पदार्थों से और चल वायु दही जैसे स्थिर द्रव्यों से तथा कठिन वायु नरम पदार्थों के प्रयोग से शान्त होती है ।] (१४६) पित्त : स्निग्ध, तिक्त, खट्टा, तरल और गरम होता है । यह भी इससे विपरीत गुरगों वाले पदार्थों के प्रयोग से शान्त होता है। जैसे स्निग्ध पित्त के लिये रूखे पदार्थों का प्रयोग, गरम के लिये शीतल पदार्थ, तिक्त के लिये फीके पदार्थ, तरल के लिये ठोस पदार्थ और खट्टे के लिये कडुवे पदार्थों के उपयोग से पित्त शान्त होता है।] [१४७] कफ : भारी, शीतल, नर्म, स्निग्ध और मधुर होता है । यह भी विपरीत पदार्थों के प्रयोग से शान्त होता है। [जैसे भारी के लिये हलके पदार्थ, ठण्डे के लिये गरम, नरम के लिये कठोर, स्निग्ध के लिये रूखे और मीठे कफ के लिये कडुवे पदार्थों का उपयोग करने से कफ शान्त होता है। [१४८] वैद्यक शास्त्र में छः प्रकार के रस बताये गये हैं :--- मीठा, खट्टा, नमकीन, तिक्त, कडुया और कषायला। इन छः में से मीठा, खट्टा और नमकीन रस कफ को उत्पन्न करने वाला और बढ़ाने वाला होता है। तिक्त, कड़वा और कषायला रस वायु को उत्पन्न करने वाला और बढ़ाने वाला होता है। तिक्त, खट्टा और खारा रस पित्त को उत्पन्न करने वाला और बढ़ाने वाला होता है । मीठा, खट्टा और नमकीन रस वायु को शान्त करता है। मीठा, कडुआ और कषायला रस पित्त को शान्त करता है। कषायला, तिक्त, और कडूवा रस कफ को शान्त करता है । [१४६-१५१] अजीर्ण चार प्रकार का होता है। आमाजीर्ण, विदग्धाजीर्ण विष्टब्धाजीर्ण और रसशेषाजीर्ण । ये अजीर्ण के चार प्रकार हैं जिनकी पहचान पहले समझ लेनी चाहिये। आमाजीर्ण में खायी हुई वस्तु की गन्ध डकार में आती है, क्योंकि इसमें खायी हुई वस्तु का रस ही नहीं बन पाता। विदग्धाजीर्ण की डकार में धुएं की गन्ध पाती है। विष्टब्धाजीर्ण में शरीर टूटता है, प्रालस्य आता है और उबासियें आती हैं। रसशेषाजीर्ण में खाना अच्छा नहीं लगता, खाने को तनिक भी इच्छा नहीं होती, भोजन के प्रति अरुचि या विरक्ति हो जाती है। [१५२] यह निश्चित करने के पश्चात कि कौन से प्रकार का अजीर्ण है, यदि ग्राम अजीर्ण हो तो वमन (उल्टी) करवाकर पेट साफ करवाना चाहिये। यदि विदग्ध अजीर्ण हो तो छाछ पिलानी चाहिये। यदि विष्टब्ध अजीर्ण हो तो गर्म पानी से सेक करना चाहिये और यदि रसशेष अजीर्ण हो तो आराम से सोकर नींद लेना चाहिये । चारों प्रकार के अजीर्ण की पहचान और उसके दूर करने के उपाय ऊपर बताये गये हैं, क्योंकि सब प्रकार के रोग अजीर्ण से ही होते हैं अतः इसका विशेष ध्यान रखना चाहिये। [१५३-१५४ ) मालूम होता है कि कुमार को अन्तर्वर (नाड़ी ज्वर) और अजीर्ण का विकार हुआ है । इन्हें विदग्ध अजीर्ण हुअा लगता है, क्योंकि इसी के कुपित होकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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