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________________ प्रस्ताव ६ : हरिकुमार की काम-व्याकुलता : अायुर्वेद १४५ मन्मथ आदि मित्र कुतुहल के कारण कुमार की दशा को देखकर गये नहीं थे, प्रत्युत कुमार न देखे वैसे प्रच्छन्न रूप से छुपकर देख रहे थे और परस्पर इशारों से कूमार का उपहास कर रहे थे। [१३७] उसी समय मध्याह्न का शंख बजा, मानों मनुष्यों के शरीर में कामाग्नि भड़काने के लिये वह कामदेव की पुकार हो ! शंख बहुत जोर से बहुत समय तक बजता रहा और दूर से उसकी ध्वनि कुमार के कान में भी पड़ी। इसी समय कुमार को घर ले जाने के लिये मन्मथ आदि सभी मित्र लतागृह में आये। सभी कुमार से कहने लगे--देव ! अब दोपहर हो गयी है, आप घर पधारें। वहाँ जाकर देव-पूजा आदि नित्यकर्म से निवृत्त होकर दिवसोचित अन्य कार्य सम्पन्न करें। . [१३८-१४०] उत्तर में कुमार बोले-मित्रों ! धनशेखर को मेरे पास छोड़कर आप सब घर जाइये । मेरा सिर-दर्द कुछ कम होने पर मैं भी धनशेखर के साथ घर चला जाऊंगा । अभी तो मेरे सिर में चीस उठ रही है, शरीर में गर्मी बढ़ रही है, अतः कुछ और देर तक इस शीतल लतागृह में रहने की मेरी इच्छा है । [१४१-१४२] कुमार के हृदय में अन्तस्ताप की गर्मी थी और वह अन्तस्ताप किस कारण से था यह भी सभी समझ गये थे, तथापि वह राजकुमार था अतः उन्हें सीधा नहीं कहा जा सकता था । फलतः धर्तता से वे परस्पर इस प्रकार बातचीत करने लगे कि उसे कुमार भी सुन ले । इस प्रकार की बातचीत से उनका प्राशय क्या है, यह कुमार भी समझ गया [१४३] प्रायुर्वेद अरे कपोल । तू आयुर्वेद में बहुत प्रवीण है, तो बता न कुमार के शरीर में क्या विकार हुअा है ? उसका कारण क्या है और उसे शान्त करने का क्या उपाय है ? कपोल ने उत्तर दिया-... __मित्रों ! वैद्यक शास्त्र में कहा है कि वात, पित्त और कफ ये तीन शारीरिक दोष हैं तथा राजस् और तमस् दो मानसिक दोष हैं । इन दोनों प्रकार के दोषों से शरीर में व्याधि उत्पन्न होती है जो भाग्य और युक्ति पूर्वक किये गये औषधोपचार से शान्त होती है, अर्थात् योग्य पुरुषार्थ और अनुकूल भाग्य हो तो शारीरिक दोष मिटते हैं । ज्ञान, विज्ञान,* धैर्य, स्मृति और समाधि से मानसिक दोष ठीक होते हैं। . [१४४-१४५] इन शारीरिक दोषों में से वात : रुक्ष, ठण्डा, सूक्ष्म, अतिसूक्ष्म, चलता-फिरता, स्वच्छ या कठिन होता है । जैसा वात हो उससे विपरीत वस्तुओं का प्रयोग करने से वह शान्त हो जाता है। [जैसे रुक्ष वायु स्निग्ध पदार्थों के प्रयोग से, शीत वायु गरम * पृष्ठ ५६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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