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________________ प्रस्ताव ६ : हरिकुमार की काम-व्याकुलता : आयुर्वेद १४७ इनके वायु और पित्त दोनों में एकाएक वृद्धि हुई है। वायु और पित्त दोनों ने मिलकर भीतरी ज्वर उत्पन्न किया है, इसी से सिर में शूल (दर्द) भी है। शास्त्र में कहा है भक्ते जीर्यति जीर्णेऽन्ने जीर्णे भक्ते च जीर्यति । जीणे जीर्यति भुक्तेऽन्ने दोषैर्नानाभिभूयते ॥ [१५५] खाये हुए अनाज के पच जाने पर खाने से, अजीर्ण होने पर नहीं खाने से, और पचे हुए अनाज के एकदम पच जाने पर खाने से मनुष्य को किसी प्रकार की व्याधि नहीं सताती। विक्रम बोला-मित्र कपोल ! अभी त बीमारी का निदान नहीं कर पाया है । वैद्य का कर्तव्य है कि बीमार को देखने पर रोग के मूल कारण का पता लगावे । बीमार की विशेष प्रकृति कैसी है, इसका सूक्ष्मता से अन्वेषण करे। उसके शरीर में बल किस प्रकार का और कितना है, इसका विचार करे। शरीर में किस प्रकार की कमी है, इसकी जानकारी के लिये शरीर के प्रत्येक अंग की ठीक से जांच करे और उसके अनुकूल कौनसी वस्तु है तथा वह पथ्य का सेवन कर सकता है या नहीं, यह ज्ञात करे। इसमें धैर्य है या नहीं, कितना धैर्य है, खाने और पचाने की कितनी शक्ति है, व्यायाम करने या चलने-फिरने की शक्ति है या नहीं और उसकी उम्र कितनी है, यह सब जानना आवश्यक है । जो रोग के संचय, प्रकोप, प्रसार, स्थान और व्यक्ति भेद की भी जानकारी रखता है वही श्रेष्ठ वैद्य है। यदि रोग को संचय की अवस्था में ही रोक दिया जाय तो उसका प्रकोप नहीं हो सकता, पर यदि उसका प्रसार होने दिया जाय तो वह अधिक बलवान हो जाता है । [१५६-१५७] भाई कपोल ! तुमने तो कुमार की कुछ भी जांच नहीं की, मात्र उनका मुह देखकर ही 'शरीर में विकार है' अपने पोपले मुह से बड़-बड़ कर बोल गए हो ।* उत्तर में कपोल ने कहा-भाई विभ्रम ! कुमार की प्रकृति आदि और उसके रोग का संचय प्रादि सब स्थितियाँ मेरे ध्यान में हैं। ग्रीष्म ऋतु में दिन, रात्रि और अवस्था के अन्त में जब अजीर्ण होकर समाप्ति की ओर हो तब वायु का प्रकोप होता है। ग्रीष्म ऋतु के प्रारम्भ में, रात्रि के प्रारम्भ में, दिन के प्रारम्भ में, उम्र के प्रारम्भ में (बचपन में) और अजीर्ण के प्रारम्भ में कफ का प्रकोप होता है। ग्रीष्म ऋतु के मध्य में, दिवस के मध्याह्न में, अर्ध-रात्रि में और अजीर्ण के मध्य में पित्त का प्रकोप होता है। शरद् ऋतु में भी पित्त अधिक बलवान होता है, ग्रीष्म ऋतु में वायु का संचय होता है, वर्षा में उसका प्रकोप होता है और शरद् ऋतु में वह शान्त हो जाता है। वर्षा में • पृष्ठ ५६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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