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प्रस्ताव ६ : हरिकुमार की विनोद गोष्ठी
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का उत्तर देकर इसका गर्व उतार दिया, यह बहत अच्छा किया। यह भाई हम सब को यह प्रश्न बार-बार पूछता था, पर हममें से किसी को भी इसका उत्तर नहीं सूझता था, जिससे इसका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ गया था।
विलास-अरे ! कुमार ने मेरा गर्व उतारा सो तो ठीक, पर आज तो वे तुम सब का गर्व उतारने पर तुले हए हैं, तुम सब ने अपने मन में जो भी प्रश्न सोच रखे हों उन्हें बोलो तो सही, प्राज वे तुम्हारा अभिमान भी अवश्य ही उतार देंगे।
मन्मथ-- कुमार ! मैंने भी दो समस्यायें (प्रश्न) सोच रखी हैं। कुमार-प्रसन्नता से बोलो, मैं उत्तर दूगा। मन्मथ-- सूनो, मेरी दोनों समस्यायें (प्रश्न) हैं
दास्यसि प्रकटं तेन, गलामि न करात्तव । भिक्षामित्युदिता काचिद् भिक्षुणा लज्जिता किल ।।१२८।। करोऽतिकठिनो राजन्नरीभकटघट्टनम् ।
विधत्ते करवालस्ते निर्मलां शत्रुसंहतिम् ॥१२६।। भावार्थ-तू प्रकट रूप से मुझे देती है, इसलिये तेरे हाथ से भिक्षा नहीं लगा। भिखारी के ऐसा कहने पर दान देने वाली स्त्री शर्मा गई।
भिखारी ऐसा क्यों बोलेगा? और उसके इस वचन से देने वाली क्यों लज्जित होगी ? स्पष्टत: विरोधी बात दिखाई दे रही है।
दूसरे श्लोक को भी साधारण तौर पर पढ़ने से यह अर्थ निकलता है -- हे राजन् । तेरी कठोर तलवार शत्र के समूह को मूल से नष्ट करती है और शत्रुओं के हस्तिसमूह के गंडस्थलों को भेद देती है।
हरिकुमार--(हंसकर) देख, भाई ! तेरे प्रथम श्लोक में जो स्पष्ट विरोध है उसका भंग इस प्रकार होगा। श्लोक के प्रथम शब्द 'दास्यसि' का सन्धि विच्छेद करना पड़ेगा, जैसे 'दासी असि' । फिर इस श्लोक का अर्थ होगा-हे बहिन ! तू प्रकट ही दासी/गणिका है,* अतः मैं तेरे हाथ से भिक्षा नहीं लूगा। भिखारी के ऐसा कहने पर देने वाली स्त्री (दासी) लज्जित हो गई। दासी यदि नीच जाति की हो तो उसके हाथ से भिक्षा लेना भिक्षु पसंद नहीं करेगा तब वह स्त्री अवश्य लज्जित होगी ही, इसमें कोई विरोधाभास नहीं है ।
दूसरे श्लोक में 'करोऽतिकठिन:' शब्द का 'कर+अतिकठिनः करोऽतिकठिनः' संधि-विच्छेद करना होगा। सन्धि-विच्छेद करने पर अर्थ होगा, हे राजन् ! तेरा अति कठिन हाथ शत्रुओं के हस्ति समूह के गंडस्थल को भेद देता है और तेरी तलवार शत्रुओं के समूह को मूल से नष्ट कर देती है।
___ इस प्रकार सन्धि-विच्छेद करने से अर्थ पूर्णरूपेण स्पष्ट हो जाता है और विरोधाभास का भंग हो जाता है, बस यही तेरे प्रश्न का उत्तर है।
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