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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
मन्मथ-वाह कुमार ! आपके बुद्धि-चातुर्य का क्या कहना? चाहे कितने ही अटपटे सवाल पूछे जायें, पर उत्तर तो आपकी जिह्वा पर ही रहते हैं। धन्य हो आपकी कुशाग्र बुद्धि को !
। उस समय मैंने (धनशेखर ने) एक ऐसा श्लोक सोचा जिसका अन्तिम पद गूढ (छपा हुआ) हो । मैंने कुमार से कहा-मैंने एक गूढ चतुर्थ पाद (जिसका चतुर्थ चरण गूढ हो) श्लोक सोच रखा है, यदि प्राज्ञा हो तो पूछू ? इस श्लोक के तीन पद मैं बताऊंगा, चौथा पद आपको ढूढना होगा।
कुमार के हां भरने पर मैंने अपने श्लोक के ३ पद बोलेविभूतिः सर्वसामान्या, परं शौर्य त्रपा मदे । भूत्यै यस्य स्वतः प्रज्ञा, ...........
....... ।।१३०॥ साधारण तौर पर इसका अर्थ यह होगा कि --- जिसकी संपत्ति सब के लिये उपयोग में आती हो, जिसमें उत्कृष्ट वीरता हो फिर भी जो गर्व करने से शर्माता हो, जिसकी बुद्धि स्वभाव से ही परोपकार के लिये हो............
उपरोक्त तीनों पद सुनकर कुमार सोचने लगा, फिर अपने मन में उसका उत्तर सोचकर सन्तुष्ट हुआ और बोला- अरे भाई धनशेखर ! तू तो बहुत चतुर निकला, तूने अत्यधिक महत्व के चतुर्थ गूढ पाद की योजना कर रखी है।
___ सब ने एक साथ पूछा-क्यों, कुमार ! क्या हुआ ? क्या चौथा पद मिल गया ? हमको भी तो सुनायो भाई !
कुमार बोला-अच्छा तो सुनिये, इसका चौथा पद बनता है “पात्रभूत : स भूपतिः ।" उत्तर सुनकर सभी मित्र विस्मित हुए।
उपरोक्त चतुर्थ पद को पहले कहे गये श्लोक में जोड़ने पर पूरे श्लोक का यह अर्थ निकलता है :
जिस राजा की सम्पत्ति सब के हित के काम में आती हो,जो राजा महापराक्रमी हो फिर भी अभिमान नहीं करता हो और जो अपनी बुद्धि का उपयोग प्रजा की भलाई के लिये ही करता हो, वही राजा वास्तव में राजा है, अर्थात् भू (पृथ्वी) का सच्चा स्वामी (पति) है। भूपति शब्द के तीनों अक्षर प्रथम तीनों पदों में प्राप्त हैं।
इसी समय कपोल नामक मित्र ने कहा-कुमार ! मैंने भी एक गूढ चतुर्थपाद वाला श्लोक सोच रखा है, सुनो
न भाषणः परावर्णे, यः समो रोषवर्जितः । भूतानां गोपको ऽत्रस्तः, ......
।।१३१॥
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