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________________ १३० उपमिति-भव-प्रपंच कथा पूर्वक देखती तो है, पर उससे कोई प्रेम व्यवहार नहीं रखती। कितनी भी विषम परिस्थितियों में भी जो प्राणी धनोपार्जन के उत्साह को नहीं छोड़ता, उसके वक्षस्थल पर लक्ष्मी बिना किसी प्रेरणा के ही या चिपकती है, वह उसका स्वयं ही वरण करती है । जो धैर्यवान प्राणी अपनी बुद्धि का उपयोग कर पराक्रम या युक्ति से लक्ष्मी को बांधकर रखता है, उसकी लक्ष्मी प्रोषितभर्तृका की तरह प्रतीक्षा करती है । जो प्राणी थोड़ी सी लक्ष्मी प्राप्त होने पर सन्तोष धारण कर लेता है, उसकी तरफ यह लक्ष्मीदेवी बहुत ही उपेक्षा की दृष्टि से देखती है। ऐसे प्राणी को वह तुच्छ प्रकृति का मानती है और उसके यहाँ वह किञ्चित् भी नहीं बढ़ती। जो प्राणी अपने धनोपार्जन के गुणों से लक्ष्मी देवी को प्रसन्न नहीं कर सकता, उसके साथ इस देवी का प्रेम-सम्बन्ध होने पर भी वह लम्बे समय तक नहीं चल सकता। इसीलिये समझदार लोग धनोपार्जन के विषय में कभी संतोष नहीं करते । अतः हे माननीय ! आप मुझे रत्नद्वीप जाने की आज्ञा प्रदान करें। [८३-६०] बकूल सेठ ने मेरे इस लम्बे भाषण का संक्षेप में ही उत्तर दिया---प्राणी पाताल में जाय या मेरु पर्वत के शिखर पर चढ़े, रत्नद्वीप जाये या घर में रहे, चाहे जितना पुरुषार्थ करे या बिना उद्यम बैठा रहे, पर उसने पूर्व में जैसे बीज बोयें होंगे उसके अनुसार ही उसे फल की प्राप्ति होगी।* तथापि तुम्हारा परदेश जाने का इतना अधिक प्राग्रह है तो जाओ, मेरी प्राज्ञा है, जहाँ तुम्हारी इच्छा हो वहाँ जाओ। [६१-६२] श्वशुरजी का उत्तर सुनते ही मैंने उनके प्रति अपना आभार प्रकट किया। धनशेखर का रत्नद्वीप-गमन __ अब मैंने रत्नद्वीप जाने की तैयारी प्रारम्भ की। अनेक प्रकार का किराणा मैंने एकत्रित किया। जहाज तैयार करवाये, उसमें खलासी, मिस्त्री, चालक आदि का प्रबन्ध किया । जाने के दिन का मुहूर्त निकलवाया, लग्न शुद्धि का विचार किया, निमित्त (शकुन) की खोज करने लगा। श्र तियां की गईं, अर्थात् ज्योतिषियों से पता लगवाया गया कि अमुक दिन अमुक दिशा में जाना ठीक होगा या नहीं ? इष्ट देवता का स्मरण किया गया, समुद्र देव की पूजा की गई, विशाल श्वेत ध्वज फहराये गये, जहाजों में बड़े-बड़े कूपक (मध्य स्तम्भ) खड़े किये गये, प्रवास हेतु आवश्यक ईंधन लिया गया, जल की टंकियां भरवाई गई। अन्य जो कुछ भी सामान यात्रा में आवश्यक हो उसे और युद्ध के लिए आवश्यक सर्व प्रकार की सामग्री जहाजों में चढ़ाई गई। समुद्र-मार्ग से व्यापार करने वाले और विशेषकर रत्नद्वीप जाकर व्यापार करने वाले व्यापारियों को साथ में लिया । इस प्रकार सब तैयारियां पूर्ण होने पर मैं अन्य धनवान व्यापारियों के साथ रत्नद्वीप जाने के लिये तैयार हुआ और मेरी पत्नी को मैंने उसके पिता के घर * पृष्ठ ५५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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