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________________ प्रस्ताव ६ : धन की खोज यह सब कुछ मेरे अन्तर्निहित मेरे दूसरे मित्र पुण्योदय के प्रभाव से मुझ मिला था । [७४-७६ ] १२६ करोड़ स्वर्ण मोहरें हो जाने पर भी मेरे आन्तरिक मित्र सागर को संतोष नहीं हुआ | उत्साहित करने की उसकी प्रवृत्ति बार-बार मुझे अन्दर से प्रेरित करती ही रहती थी । जब-जब अवसर मिलता तब-तब वह मुझ पर अपनी श्राज्ञा चलाता और मुझे विवश कर आगे बढ़ाता । वह मुझे समझाता - 'देख, तूने मेरे परामर्श और संकेतानुसार काम किया तो मेरे प्रताप से तुझे एक करोड़ मोहरें प्राप्त हो गई । अब तू यदि पूर्ण उत्साह रखेगा तो करोड़ों रत्न पैदा करना भी तेरे लिए कुछ दुर्लभ या अशक्य नहीं होगा। पर, रत्न यहाँ नहीं मिलेंगे, उसके लिए तो तुझे इस समुद्र को लांघकर रत्नद्वीप जाना पड़ेगा, यदि तू उत्साह रखेगा तो मेरे प्रताप से तुझे वे भी मिलेंगे । इस प्रकार सागर मित्र ने मुझे समुद्र लांघ कर रत्नद्वीप जाने के लिए प्रेरित किया और बार-बार की प्रेरणा से इस बात की मेरे मन पर ऐसी अमिट छाप डाल दी कि यदि कोई देव आकर भी मुझे इस कार्य से निवृत्त होने के लिए कहे तो भी मैं अपने निर्णय से पीछे न हटू । [७७-७६ ] जब मैंने अपने मन में रत्नद्वीप जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया तब यह बात मैंने अपने श्वसुर बकुल सेठ को बतलाई । सेठ महा विलक्षण व्यापारी थे, उन्होंने दीर्घ- दृष्टि से मुझे उत्तर दियाप्रिय वत्स ! जैसे-जैसे मनुष्य को अधिकाधिक धन की प्राप्ति होती रहती है वैसेवैसे और अधिक प्राप्त करने के उसके मनोरथ बढ़ते रहते हैं । एक करोड़ रत्न प्राप्त हो जाय तो उससे अधिक प्राप्त करने की बलवती इच्छा होगी । धधकती हुई आग में इन्धन डालने से क्या वह आग तृप्त हो जाती है ? वत्स ! तूने बहुत धन कमाया है, तुझे अब संतोष धारण करना चाहिये । जो धन कमाया है उसकी ठीक से व्यवस्था कर उसे बनाये रखना ही अधिक उचित है । अतः अब सब प्रकार की व्याकुलता को छोड़कर कुछ दिन आराम से बैठो और चित को स्थिर करो । [८०-८२] मेरे श्वसुर के वचन सुनकर मैंने कहा -- प्रादरणीय ! आप इस प्रकार न बोलें, कहा भी है कि करता, जब तक यह प्रारणी पुरुषार्थ नहीं करता, अपनी शक्ति को प्रस्फुटित नहीं कार्य का आरम्भ नहीं करता तब तक लक्ष्मी उसकी तरफ पीठ फेर कर रहती है, वह कभी उसका वरण नहीं करती । पर, कार्य का प्रारम्भ कर देने पर लक्ष्मी उसकी तरफ प्रेमदृष्टि से देखती है । जैसे अपने प्रेमातुर प्रणयी को प्राप्त करने के लिए कुलटा स्त्री अपने धनहीन पुरुष को छोड़ देती है वैसे ही साहस और उत्साह रहित प्राणी को लक्ष्मी एक बार वरण करके भी छोड़ देती है । जो अपना सब कामकाज बन्द करके अपने चित्त को अन्यत्र लगाता है, जो अपने धनोपार्जन के कार्य को बन्द कर देता है, उसकी तरफ लक्ष्मी कुलवती स्त्री की भांति लज्जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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