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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
हजार मोहरें हो गयी तब मेरी इच्छा दस हजार मोहरें इकट्ठी करने की हो गई। फिर अधिक व्यापार करने और अनेक प्रकार के पापों का सेवन करने पर जब मेरी पूजी दस हजार मोहरें हो गईं तो तुरन्त ही मेरी इच्छा एक लाख मोहरें करने की हो गई । भद्रे ! विविध प्रयत्नों से मैंने इसकी भी पूर्ति करली । मेरा सागर (लोभ) मित्र अन्दर बैठा हुआ मुझे प्रेरित करता ही रहता था और किसी भी प्रकार एक लाख मोहरों के स्थान पर दस लाख एकत्रित करने को उत्साहित करता रहता था। फिर मैंने अनेक व्यापार किये, तकलीफें उठाई, रात-रात भर जागा और महान प्रयत्नों के बाद अन्त में मैं दस लाख मोहरें एकत्रित करने में भी सफल हुआ। [६८-७१,
हे भद्रे ! जब मेरी पूजी दस लाख स्वर्ण मोहरों की हो गई तो मेरे मित्र सागर (लोभ) ने भीतर से बार-बार मुझे एक करोड़ मोहरें इकट्ठी करने के लिए उत्साहित किया। मैंने पहले जो-जो व्यापार किये थे उन सब को अधिक उत्साह से तथा अधिक बड़े पैमाने पर किया, फिर भी दस लाख और करोड़ में बहुत बड़ा अन्तर था इसलिए मेरी इच्छा पूरी न हो सकी। [७२-७३] अतः मैंने कोटिपति की मनोकामना पूर्ण करने के लिए अधिकाधिक विविध योजनायें बनाकर उनको कार्यरूप में परिणत करना प्रारम्भ किया। परदेश में जाकर व्यापार करने वाले अनेक गाड़ीवान बनजारों को नियुक्त किया । ऊंटों के बड़े-बड़े टोलों पर वस्तुएं भरकर परदेश भेजीं। बड़े-बड़े जहाजों पर माल भरकर देशान्तरों में भेजा । गधों का विशाल झुण्ड एकत्रित कर उन पर माल लाद कर परदेश भेजा। चमड़े के व्यापारियों के साथ मिलकर व्यापार किया। राजारों से मिलकर अमुक-अमुक देशों से व्यापार करने और कर वसूली के प्राज्ञा पत्र लिखवाये । बड़ी संख्या में बैल पाल कर फिर उन्हें बधिया (नपुसंक) बनाकर कृषकों और गाड़ीवानों को बेचा । पैसा पैदा कर मुझे देने के लिए वेश्यागृह चलाया। जिन कामों में स्पष्टतः अत्यन्त अधमता दिखाई दे वे सभी काम मैं करने लगा। दारू, ताड़ी, शराब आदि बनाने के धन्धे भी मैंने खोल दिये। सुन्दर हाथियों के दांत कटवाकर हाथी दांत का व्यापार करने लगा। [ये सभी कर्मादान हैं] । अनेक प्रकार की खेती करवाने लगा और गन्ने का रस निकलवा कर उससे गुड़ और चीनी बनवाने के धन्धे भी चालू किये।
संक्षेप में कहं तो इस संसार में जितने भी व्यापार धन्धे हैं उनमें से एक को भी मैंने नहीं छोड़ा।* हे भद्रे ! मेरे सागर मित्र की इच्छा तृप्त करने के लिए मैंने ऐसे-ऐसे धन्धे किये कि जिनकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। न मैं पाप से डरा, न मैंने क्लेश की परवाह की, न किसी प्रकार के सुख की इच्छा की और न जरा भी संतोष ही किया। मेरे सागर मित्र को संतोष देने के लिए मैंने उसकी आज्ञानुसार मेरे से हो सके वे सभी व्यापार धन्धे किये । महान् पापजन्य कार्यों को करने पर बहुत समय पश्चात् कहीं जाकर अन्त में मेरे पास एक करोड़ स्वर्ण मोहरें हुईं।
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